पटना: बिहार के छात्र आंदोलन ने सबसे पहले बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर को सत्ता से बेदखल किया था। 18 मार्च 1974 को आंदोलनकारी छात्रों ने बिहार विधानसभा के घेराव का एलान किया था। उस दिन बिहार विधानमंडल का सत्र शुरू होना था, जिसमें राज्यपाल का अभिभाषण होना था। छात्रों ने राज्यपाल को विधानमंडल में जाने से रोकने की कोशिश की। जब छात्र राज्यपाल की गाड़ी को रोकने के लिए आगे बढ़ने लगे तो पुलिस ने बेरहमी से लाठियां बरसानी शुरू कर दीं। इससे कई छात्र घायल हो गये। इसके बाद छात्र बेकाबू हो गये। हिंसा और आगजनी की घटनाएं हुईं। कई छात्रों को गिरफ्तार कर लिया गया। बिहार में एक राजनीतिक तनाव पैदा हो गया। उस समय अब्दुल गफूर मुख्यमंत्री थे।
मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग
पुलिस की बर्बरता से छात्र आक्रोशित थे। वे मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर के इस्तीफे की मांग करने लगे। 29 मार्च को छात्रों ने चेतावनी दी कि अगर मुख्यमंत्री ने 8 अप्रैल तक इस्तीफा नहीं दिया तो वे और भी बड़ा आंदोलन खड़ा करेंगे। इसके अलावा गिरफ्तार छात्रों की बिना शर्त रिहाई और पुलिस जुल्म के पीड़ितों को मुआवजा देने की भी मांग रखी। तब तक जयप्रकाश नारायण इस छात्र आंदोलन में शामिल नहीं हुए थे।
6 अप्रैल को पटना विश्वविद्यालय के छात्र जेपी से मिलने उनके पटना स्थित आवास पर पहुंचे और उनसे आंदोलन के नेतृत्व का अनुरोध किया। जेपी ने इस आंदोलन को अहिंसक रखने की शर्त पर नेतृत्व स्वीकार कर लिया गया।
लाठी, गोली, हिंसा, लूट नहीं किसी को इसकी छूट
महंगाई, भ्रष्टाचार और पुलिस जुल्म के खिलाफ जेपी ने अहिंसक आंदोलन छेड़ दिया। 8 अप्रैल 1974 को पटना में जेपी के नेतृत्व में छात्रों, सर्वोदय के अनुयायियों, शिक्षकों और उत्साही नागरिकों का एक मौन जुलूस निकला। जुलूस में शामिल सभी लोगों ने अपने मुंह केसरिया रंग के कपड़े से ढक रखे थे। केसरिया कपड़ा क्रांति का प्रतीत था और मुंह का बंद रखना मौन विरोध।
सभी आंदोलनकारियों ने अपने हाथ पीठ के पीछे बांध रखे थे। इसका मतलब था, हम लाचार हैं, लेकिन दिल में विरोध की भावनाएं हिलोरें मार रही हैं। चूंकि यह मौन जुलूस था, इसलिए अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उन्होंने अपने हाथों में नारों की तख्तियां ली हुई थीं। इनमें लिखा था- लाठी, गोली, हिंसा, लूट नहीं किसी को इसकी छूट/ महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार सत्ता ही जिम्मेदार/ हमला चाहे जितना हो हाथ हमारा नहीं उठेगा।
इंदिरा गांधी की चिंता बढ़ी
18 मार्च 1974 को जो घटनाक्रम हुआ, उससे राज्य सरकार की कौन कहे, केन्द्र की इंदिरा सरकार भी हिल गयी। मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर के खिलाफ छात्रों की नाराजगी लगातार बढ़ रही थी। उनके इस्तीफे की मांग से राजनीतिक सरगर्मी तेज हो गयी थी। इंदिरा गांधी ने बिहार के हालात पर काबू पाने के ख्याल से कांग्रेस की महासचिव एम चंद्रशेखर को बिहार भेजा। 9 अप्रैल को वे पटना पहुंची। उस समय कांग्रेस ने सोचा कि अगर गफूर मंत्रिपरिषद में फेरबदल कर दिया जाएगा तो छात्रों की नाराजगी शायद कम हो जाएगी। आलाकमान के निर्देश पर गफूर मंत्रपरिषद में शामिल सभी 46 मंत्रियों ने एम चंद्रशेखर के सामने सीएम को इस्तीफे सौंप दिये।
सीएम गफूर ने 35 मंत्रियों को हटा दिया
इसके बाद नये मंत्रिमंडल के गठन का मार्ग प्रशस्त हो गया। 18 अप्रैल 1974 को नये कैबिनेट की घोषणा हुई। शासन की छवि सुधारने के लिए मुख्यमंत्री ने 46 में से 35 मंत्रियों को ड्रॉप कर दिया। केवल 11 मंत्रियों को बरकरार रखा। तीन नये मंत्रियों को शामिल किया गया- उमेश प्रसाद वर्मा, साइमन तिग्गा और सुरेश कुमार।
गौरतलब है कि जिस सुरेश कुमार को बिहार में मंत्री बनाया गया, वे तत्कालीन रक्षा मंत्री जगजीवन राम के पुत्र थे। लेकिन सुरेश कुमार ने मंत्री पद की शपथ नहीं ली। इस तरह 13 मंत्रियों के साथ अब्दुल गफूर ने नयी पारी शुरू की। जिन मंत्रियों को बरकरार रखा गया था उनमें जगन्नाथ मिश्र, दारोगा प्रसाद राय, रामदुलारी सिन्हा, चंद्रशेखर सिंह प्रमुख थे।
सीएम गफूर के खिलाफ गुटबाजी
किसी सरकार से 35 मंत्रियों को हटा देना कोई मामूली बात नहीं थी। जिन मंत्रियों को हटाया गया, वे अब्दुल गफूर के खिलाफ गुटबाजी करने लगे। उस समय केन्द्रीय मंत्री ललित नरायण मिश्र बहुत शक्तिशाली थे। इंदिरा गांधी उन पर बहुत भरोसा करती थीं। कहा जाता है कि ललित नारायण मिश्र बिहार की राजनीति में अत्याधिक हस्तक्षेप करते थे। वे अपने छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र के जरिये बिहार की राजनीति को परोक्ष रूप से संचालित करते थे। मंत्रिपरिषद के पुनर्गठन के बाद भी अब्दुल गफूर की समस्याएं कम नहीं हुई। कैबिनेट में केवल 13 मंत्री थे फिर भी टकराव की स्थिति बनी रही। इस बीच बिहार का छात्र आंदोलन और भी तेज होता गया।
जेपी के नेतृत्व में 5 किलोमीटर लंबा जुलूस
5 जून 1974 को जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में पटना में एक विशाल जुलूस निकला। यह जुलूस करीब पांच किलोमीटर लंबा था। पटना में पहली बार इतना बड़ा जुलूस निकला था। जेपी की अगुवाई में एक प्रतिनिधिमंडल ने राज्यपाल को एक स्मार पत्र सौंपा। इस स्मार पत्र में करीब एक करोड़ वोटरों के हस्ताक्षर या अंगूठे के निशान थे जिसमें मांग की गयी थी-मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर इस्तीफा दें और विधानसभा को भंग कर नया चुनाव कराया जाए। अक्टूबर से आंदोलनकारियों ने मंत्रियों और अफसरों के कार्यालय का घेराव शुरू कर दिया जिससे सरकारी कामकाज बाधित होने लगा।
आंदोलन ने छीन ली अब्दुल गफूर की कुर्सी
1 नवम्बर 1974 को बिहार के मुद्दे पर जयप्रकाश नारायण और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच एक बैठक हुई। इस बैठक में बिहार विधानसभा को भंग करने पर कोई सहमति नहीं बन सकी। इंदिरा गांधी ने जेपी को अगले चुनाव तक इंतजार करने को कहा। जेपी ने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया। गफूर सरकार के खिलाफ छात्र आंदोलन के जोर पकड़ने से कांग्रेस की अंदरुनी पर गहरा प्रभाव पड़ा। मुख्यमंत्री के खिलाफ विक्षुब्धों को एक बड़ा मौका मिल गया। वे आलाकमान को यह समझाने में सफल रहे कि अब्दुल गफूर छात्र आंदोलन से निबटने में सक्षम व्यक्ति नहीं हैं। जगन्नाथ मिश्र गुट उन्हें पद से हटाने के लिए जी-जान से सक्रिय था। आखिरकार अप्रैल 1975 में अब्दुल गफूर ने इस्तीफा दे दिया और जगन्नाथ मिश्र नये मुख्यमंत्री बने।
मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग
पुलिस की बर्बरता से छात्र आक्रोशित थे। वे मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर के इस्तीफे की मांग करने लगे। 29 मार्च को छात्रों ने चेतावनी दी कि अगर मुख्यमंत्री ने 8 अप्रैल तक इस्तीफा नहीं दिया तो वे और भी बड़ा आंदोलन खड़ा करेंगे। इसके अलावा गिरफ्तार छात्रों की बिना शर्त रिहाई और पुलिस जुल्म के पीड़ितों को मुआवजा देने की भी मांग रखी। तब तक जयप्रकाश नारायण इस छात्र आंदोलन में शामिल नहीं हुए थे।
6 अप्रैल को पटना विश्वविद्यालय के छात्र जेपी से मिलने उनके पटना स्थित आवास पर पहुंचे और उनसे आंदोलन के नेतृत्व का अनुरोध किया। जेपी ने इस आंदोलन को अहिंसक रखने की शर्त पर नेतृत्व स्वीकार कर लिया गया।
लाठी, गोली, हिंसा, लूट नहीं किसी को इसकी छूट
महंगाई, भ्रष्टाचार और पुलिस जुल्म के खिलाफ जेपी ने अहिंसक आंदोलन छेड़ दिया। 8 अप्रैल 1974 को पटना में जेपी के नेतृत्व में छात्रों, सर्वोदय के अनुयायियों, शिक्षकों और उत्साही नागरिकों का एक मौन जुलूस निकला। जुलूस में शामिल सभी लोगों ने अपने मुंह केसरिया रंग के कपड़े से ढक रखे थे। केसरिया कपड़ा क्रांति का प्रतीत था और मुंह का बंद रखना मौन विरोध।
सभी आंदोलनकारियों ने अपने हाथ पीठ के पीछे बांध रखे थे। इसका मतलब था, हम लाचार हैं, लेकिन दिल में विरोध की भावनाएं हिलोरें मार रही हैं। चूंकि यह मौन जुलूस था, इसलिए अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उन्होंने अपने हाथों में नारों की तख्तियां ली हुई थीं। इनमें लिखा था- लाठी, गोली, हिंसा, लूट नहीं किसी को इसकी छूट/ महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार सत्ता ही जिम्मेदार/ हमला चाहे जितना हो हाथ हमारा नहीं उठेगा।
इंदिरा गांधी की चिंता बढ़ी
18 मार्च 1974 को जो घटनाक्रम हुआ, उससे राज्य सरकार की कौन कहे, केन्द्र की इंदिरा सरकार भी हिल गयी। मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर के खिलाफ छात्रों की नाराजगी लगातार बढ़ रही थी। उनके इस्तीफे की मांग से राजनीतिक सरगर्मी तेज हो गयी थी। इंदिरा गांधी ने बिहार के हालात पर काबू पाने के ख्याल से कांग्रेस की महासचिव एम चंद्रशेखर को बिहार भेजा। 9 अप्रैल को वे पटना पहुंची। उस समय कांग्रेस ने सोचा कि अगर गफूर मंत्रिपरिषद में फेरबदल कर दिया जाएगा तो छात्रों की नाराजगी शायद कम हो जाएगी। आलाकमान के निर्देश पर गफूर मंत्रपरिषद में शामिल सभी 46 मंत्रियों ने एम चंद्रशेखर के सामने सीएम को इस्तीफे सौंप दिये।
सीएम गफूर ने 35 मंत्रियों को हटा दिया
इसके बाद नये मंत्रिमंडल के गठन का मार्ग प्रशस्त हो गया। 18 अप्रैल 1974 को नये कैबिनेट की घोषणा हुई। शासन की छवि सुधारने के लिए मुख्यमंत्री ने 46 में से 35 मंत्रियों को ड्रॉप कर दिया। केवल 11 मंत्रियों को बरकरार रखा। तीन नये मंत्रियों को शामिल किया गया- उमेश प्रसाद वर्मा, साइमन तिग्गा और सुरेश कुमार।
गौरतलब है कि जिस सुरेश कुमार को बिहार में मंत्री बनाया गया, वे तत्कालीन रक्षा मंत्री जगजीवन राम के पुत्र थे। लेकिन सुरेश कुमार ने मंत्री पद की शपथ नहीं ली। इस तरह 13 मंत्रियों के साथ अब्दुल गफूर ने नयी पारी शुरू की। जिन मंत्रियों को बरकरार रखा गया था उनमें जगन्नाथ मिश्र, दारोगा प्रसाद राय, रामदुलारी सिन्हा, चंद्रशेखर सिंह प्रमुख थे।
सीएम गफूर के खिलाफ गुटबाजी
किसी सरकार से 35 मंत्रियों को हटा देना कोई मामूली बात नहीं थी। जिन मंत्रियों को हटाया गया, वे अब्दुल गफूर के खिलाफ गुटबाजी करने लगे। उस समय केन्द्रीय मंत्री ललित नरायण मिश्र बहुत शक्तिशाली थे। इंदिरा गांधी उन पर बहुत भरोसा करती थीं। कहा जाता है कि ललित नारायण मिश्र बिहार की राजनीति में अत्याधिक हस्तक्षेप करते थे। वे अपने छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र के जरिये बिहार की राजनीति को परोक्ष रूप से संचालित करते थे। मंत्रिपरिषद के पुनर्गठन के बाद भी अब्दुल गफूर की समस्याएं कम नहीं हुई। कैबिनेट में केवल 13 मंत्री थे फिर भी टकराव की स्थिति बनी रही। इस बीच बिहार का छात्र आंदोलन और भी तेज होता गया।
जेपी के नेतृत्व में 5 किलोमीटर लंबा जुलूस
5 जून 1974 को जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में पटना में एक विशाल जुलूस निकला। यह जुलूस करीब पांच किलोमीटर लंबा था। पटना में पहली बार इतना बड़ा जुलूस निकला था। जेपी की अगुवाई में एक प्रतिनिधिमंडल ने राज्यपाल को एक स्मार पत्र सौंपा। इस स्मार पत्र में करीब एक करोड़ वोटरों के हस्ताक्षर या अंगूठे के निशान थे जिसमें मांग की गयी थी-मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर इस्तीफा दें और विधानसभा को भंग कर नया चुनाव कराया जाए। अक्टूबर से आंदोलनकारियों ने मंत्रियों और अफसरों के कार्यालय का घेराव शुरू कर दिया जिससे सरकारी कामकाज बाधित होने लगा।
आंदोलन ने छीन ली अब्दुल गफूर की कुर्सी
1 नवम्बर 1974 को बिहार के मुद्दे पर जयप्रकाश नारायण और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच एक बैठक हुई। इस बैठक में बिहार विधानसभा को भंग करने पर कोई सहमति नहीं बन सकी। इंदिरा गांधी ने जेपी को अगले चुनाव तक इंतजार करने को कहा। जेपी ने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया। गफूर सरकार के खिलाफ छात्र आंदोलन के जोर पकड़ने से कांग्रेस की अंदरुनी पर गहरा प्रभाव पड़ा। मुख्यमंत्री के खिलाफ विक्षुब्धों को एक बड़ा मौका मिल गया। वे आलाकमान को यह समझाने में सफल रहे कि अब्दुल गफूर छात्र आंदोलन से निबटने में सक्षम व्यक्ति नहीं हैं। जगन्नाथ मिश्र गुट उन्हें पद से हटाने के लिए जी-जान से सक्रिय था। आखिरकार अप्रैल 1975 में अब्दुल गफूर ने इस्तीफा दे दिया और जगन्नाथ मिश्र नये मुख्यमंत्री बने।
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