चूंकि मृत व्यक्ति के लिए शोक, दुःख, विलाप करने वाले बन्धु-बान्धव उसका कुछ भी उपकार नहीं करते हैं, इसलिए उन्हें चाहिए कि वे रोना-धोना छोड़कर स्वस्थ होकर यथाशक्ति उसके कल्याण के निमित्त और्ध्वदैहिक पिंडदान, श्राद्ध, ब्राह्मण भोजन, दान आदि सत्कर्म करें। इससे प्रेत, प्रेतत्व से मुक्त होकर सद्गति प्राप्त करता है। केवल रोना, विलाप करना, शोक मनाना तथा पिंड दान आदि कुछ भी कर्म न करना अज्ञानता है तथा मृत व्यक्ति अधोगति प्रदान करना है। धर्मशास्त्रों में कहा गया है,
शोचन्तो नोपकुर्वन्ति मृतस्येह जना यतः। अतो न रोदितव्यं हि क्रियाः कार्याः स्वशक्तिः।।
जन्मदाता, माता-पिता एवं परिजनों को मृत्योपरांत लोग विस्मृत न कर दें इसलिए उन्हें याद कर श्रद्धांजलि का विधान पितृपक्ष में बनाया गया है। पितृपक्ष में पितृगण ही आराध्य देवता माने गए हैं, पितरों की प्रसन्नता के बाद ही देवी-देवता प्रसन्न होते हैं, ऐसा धर्मशास्त्रों में वर्णित है। पितृपक्ष में पितरों को श्रद्धांजलि देने से न केवल पितरों बल्कि श्रद्धांजलि देने वाले का परिवार सहित कल्याण होता है। पितृपक्ष में पितरों के निमित्त किया गया कोई भी धार्मिक कार्य, दान-पुण्य, कर्म व्यर्थ नहीं जाता है, पितरों को संतुष्ट कर वंशजों को उनका आशीर्वाद दिलाता है।
श्राद्ध की परिभाषा- धर्मशास्त्रों के अनुसार श्रद्धापूर्वक किए जाने के कारण ही मुख्यतः इसका नाम श्राद्ध है। प्रज्ञाश्रद्धार्चाभ्योणः, श्राद्धतत्व में ऋषि पुलस्त्य के वचन द्वारा कहा गया है कि श्राद्ध में व्यंजन आदि पकवानों को दूध, दही, घी आदि के साथ श्रद्धापूर्वक देने के कारण ही इसका नाम श्राद्ध पड़ा। श्रद्धा से अपने पूर्वजों की स्मृति को ताजा करना ही श्राद्ध कहलाता है।
श्राद्ध पक्ष में दान आदि का होता है बहुआयामी लाभ- दिवंगत पूर्वजों के नाम पर किया गया दान न केवल मृतात्मा के लिए पुण्य का कारण बनता है, बल्कि परिवार के कर्मों को भी सुधारता है और सामाजिक कल्याण में योगदान देता है। श्राद्ध आदि कर्म में मात्र औपचारिक क्रियाओं से कम लाभ होता है, श्राद्ध की प्रक्रिया में पितरों के प्रति श्रद्धा भाव से पूर्ण समर्पण, सही विधि और उचित दान-भोजन की व्यवस्था अधिक फलदायी रहती है।
शोचन्तो नोपकुर्वन्ति मृतस्येह जना यतः। अतो न रोदितव्यं हि क्रियाः कार्याः स्वशक्तिः।।
जन्मदाता, माता-पिता एवं परिजनों को मृत्योपरांत लोग विस्मृत न कर दें इसलिए उन्हें याद कर श्रद्धांजलि का विधान पितृपक्ष में बनाया गया है। पितृपक्ष में पितृगण ही आराध्य देवता माने गए हैं, पितरों की प्रसन्नता के बाद ही देवी-देवता प्रसन्न होते हैं, ऐसा धर्मशास्त्रों में वर्णित है। पितृपक्ष में पितरों को श्रद्धांजलि देने से न केवल पितरों बल्कि श्रद्धांजलि देने वाले का परिवार सहित कल्याण होता है। पितृपक्ष में पितरों के निमित्त किया गया कोई भी धार्मिक कार्य, दान-पुण्य, कर्म व्यर्थ नहीं जाता है, पितरों को संतुष्ट कर वंशजों को उनका आशीर्वाद दिलाता है।
श्राद्ध की परिभाषा- धर्मशास्त्रों के अनुसार श्रद्धापूर्वक किए जाने के कारण ही मुख्यतः इसका नाम श्राद्ध है। प्रज्ञाश्रद्धार्चाभ्योणः, श्राद्धतत्व में ऋषि पुलस्त्य के वचन द्वारा कहा गया है कि श्राद्ध में व्यंजन आदि पकवानों को दूध, दही, घी आदि के साथ श्रद्धापूर्वक देने के कारण ही इसका नाम श्राद्ध पड़ा। श्रद्धा से अपने पूर्वजों की स्मृति को ताजा करना ही श्राद्ध कहलाता है।
श्राद्ध पक्ष में दान आदि का होता है बहुआयामी लाभ- दिवंगत पूर्वजों के नाम पर किया गया दान न केवल मृतात्मा के लिए पुण्य का कारण बनता है, बल्कि परिवार के कर्मों को भी सुधारता है और सामाजिक कल्याण में योगदान देता है। श्राद्ध आदि कर्म में मात्र औपचारिक क्रियाओं से कम लाभ होता है, श्राद्ध की प्रक्रिया में पितरों के प्रति श्रद्धा भाव से पूर्ण समर्पण, सही विधि और उचित दान-भोजन की व्यवस्था अधिक फलदायी रहती है।
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