जब भी कोई सड़क दुर्घटना होती है और अगर गाड़ी चलाने वाली एक महिला हो तो अख़बारों और टीवी की हेडलाइनों में साफ़-साफ़ लिखा होता है- ‘महिला ड्राइवर ने किया एक्सिडेंट।’ जैसे यह बताना ज़रूरी है कि ड्राइवर महिला थी, ताकि पाठक मन ही मन यह निष्कर्ष निकाल लें कि हां, महिला थी तो ग़लती होना लाज़िमी है। रोज़ाना सैकड़ों सड़क हादसे पुरुष ड्राइवर करते हैं लेकिन कभी आपने ये पढ़ा है- ‘पुरुष ड्राइवर ने किया एक्सिडेंट?’ नहीं, क्योंकि यह मान लिया गया है कि गाड़ी चलाना तो पुरुष का ‘डिफ़ॉल्ट’ काम है। वही गाड़ी चलाएगा, वही विमान उड़ाएगा, वही फ़ुटबॉल खेलेगा, वही चुनाव लड़ेगा। अगर कोई महिला ये सब करे, तो समाज की आंखों में एक विस्मय पैदा होता है और वही विस्मय ‘महिला पायलट’, ‘महिला कप्तान’, ‘महिला ड्राइवर’ जैसी हेडलाइनों में घुस जाता है। जब विस्मय थोड़ी बेचैनी बन जाए, तो वही बेचैनी चुटकुलों में बदलती है- ‘ओ तेरी, ज़रूर लेडी ड्राइवर होगी’, ‘गाड़ी इतनी धीरे कौन चला रहा है, औरत ही होगी’। मानो ग़लती करना महिलाओं की जैविक संरचना में लिखा गया हो।मेरे अपने घर का उदाहरण ले लीजिए- मेरे पति कार ड्राइव नहीं करते, पिछले कई सालों से गाड़ी मैं चला रही हूं। फिर भी किसी बाज़ार की तंग गलियों में अगर गाड़ी को पार्क करते हुए एक मिनट ज़्यादा लग जाए, तो पास खड़ा कोई पार्किंग वाला बोल ही देता है- ‘मैडम, आप उतर जाइए, सर को करने दीजिए पार्किंग। वे एक सेकंड के लिए नहीं सोचते कि कि सर को क्लच और ब्रेक का फर्क पता है या नहीं। उन्हें तो यही लगता है कि महिला अगर गाड़ी चला रही है, तो ग़लत ही करेगी क्योंकि यह उसका काम नहीं है। यह काम तो मर्दों का है। यही सोच दूसरे पेशों में भी घुस चुकी है। जैसे ‘नर्स’ शब्द सुनते ही एक महिला की इमेज आंखों के सामने आ जाती है। समाज की कल्पना में ‘देखभाल’ का काम महिला का ही माना जाता रहा, इसलिए पुरुष नर्स को आज भी लोग अजीब मानते हैं। लेकिन आज इस पेशे में पुरुष भी हैं, जो अस्पतालों में ‘ब्रदर’ कहलाते हैं। उन्हें सिस्टर नाम से ही पुकार लो, किसी ने नहीं कहा। महिलाओं के लिए IPL शुरू हुआ तो उसका नाम पड़ा- ‘Women’s IPL’, क्योंकि क्रिकेट का मतलब ही पुरुषों से जोड़ा गया है। महिला अगर खेले तो ‘सप्लिमेंट’ है, मूल खेल पुरुषों का ही है।अब ज़रा सोचिए, जब पेशों यानी प्रोफेशन में जेंडर इतनी गहराई से घुसा है, तो भाषा में इसे नज़रअंदाज़ कैसे किया जा सकता है? यही तो मक़सद है NBT के ‘बराबरी की भाषा‘ अभियान का। लेकिन जैसे ही हमने कहा कि ‘चित्रकार’ का स्त्रीलिंग ‘चित्रकारा’ होना चाहिए, या ‘कलाकार’ से ‘कलाकारा’ बनाना चाहिए, कुछ लोगों की भौंहें तन गईं। बोले- क्या मज़ाक है? भाषा की टांग तोड़ दी।’ अरे भाई, भाषा की नहीं, पितृसत्ता यानी Patriarchy की उंगली मरोड़ी है, इसीलिए चिल्लाहट हो रही है।कुछ आलोचक बोले कि ‘दुनिया gender neutral toilets बना रही है और आप gender divide और गहरा कर रहे हैं।’ अब उनसे कोई पूछे कि gender neutral toilet की बात कर रहे हो, लेकिन हमारे गांवों में तो आज भी महिलाओं के लिए कोई भी टॉयलेट नहीं है। सुबह चार बजे अंधेरे में खेत-खलिहान की तरफ़ जाना पड़ता है। पहले gender existence की बात कर लें, फिर neutrality पर बहस शुरू करेंगे। जिस देश में महिलाओं की बुनियादी ज़रूरतें अभी तक पूरी नहीं हुईं, वहां ये कह देना कि ‘हमें तो जेंडर नहीं देखना चाहिए’ दरअसल उस असमानता को अनदेखा करना है जो ज़मीनी हक़ीक़त है।अब बात नए शब्दों की। जब हमने कहा कि ‘विजेता’ से ‘विजेत्री’ बनाएं, या ‘सैनिक’ का स्त्रीलिंग होना चाहिए, तो कुछ भाषाई ठेकेदारों को उलटी आने लगी। बोले, ‘भाषा का सत्यानाश कर दिया।’ लेकिन सवाल ये है कि आज जब महिलाएं कप्तान, कलाकार, वैज्ञानिक, पुलिस अफ़सर और जज बन रही हैं, तो उनके लिए उनकी पहचान के शब्द गढ़ना कौन सा गुनाह हो गया? सच तो यह है कि कलाकारा, चित्रकारा, विजेत्री जैसे शब्द भाषा नहीं बदलते, वे नज़रिया बदलते हैं। वे उस अदृश्य लड़ाई को ज़ुबान देते हैं जो हर महिला अपने पेशे में लड़ रही है, सिर्फ़ अपने काम के लिए नहीं, बल्कि उस काम को करने के ‘हक़’ को मान्यता दिलाने के लिए। क्योंकि जब तक भाषा में उसका नाम नहीं होगा, तब तक समाज उसे ‘अपवाद’ समझता रहेगा, नॉर्मल नहीं।इसलिए ‘बराबरी की भाषा' कोई शब्दकोष की कसरत नहीं है, ये सोच की सर्जरी है। और अगर उससे किसी को चुभन हो रही है, तो शायद वो चुभन भाषा की नहीं, सत्ता की है, क्योंकि जैसे ही आप नाम दे देते हैं, आप जगह भी दे देते हैं। अगर कोई पूछे- ‘NBT को क्या ज़रूरत है ये सब करने की?’ तो जवाब है- क्योंकि किसी को तो शुरुआत करनी थी। और बदलाव हमेशा वहीं से शुरू होता है जहां सबसे ज़्यादा प्रतिरोध होता है। अब भाषा को भी बराबरी चाहिए और औरतों को भी। क्योंकि शब्दों से ही पहचान बनती है और पहचान से ही सम्मान।
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