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चंपारण: बिहार के किसानों को 135 सालों के जुल्म से मिली मुक्ति और पहले सत्याग्रह से गांधी बने महात्मा

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पटनाः “सौ साल पहले इसी हफ्ते, मोहनदास करमचंद गांधी उत्तर बिहार के चंपारण जिले में आए थे। उन्होंने जिले में कई महीने बिताकर किसानों की समस्याओं का अध्ययन किया, जिन्हें यूरोपीय बागान मालिकों ने उनकी इच्छा के विरुद्ध नील की खेती करने के लिए मजबूर किया था। जिन किसानों ने यह दायित्व निभाने से इनकार कर दिया, उनकी ज़मीनें ज़ब्त कर ली गईं।



औपनिवेशिक राज्य के साथ अपने हस्तक्षेप के माध्यम से, गांधीजी किसानों के लिए पर्याप्त रियायत प्राप्त करने में सफल रहे। लगान में भारी कमी की गई, और नील की खेती की अनिवार्यता की जगह स्वैच्छिक अनुपालन की व्यवस्था लागू की गई। यह किसानों के लिए एक बड़ी जीत थी, और स्वयं गांधीजी के लिए भी एक महत्वपूर्ण विजय थी, क्योंकि इसने भारत में (दक्षिण अफ्रीका से अलग) एक नेता के रूप में उनकी विश्वसनीयता स्थापित की।”



15 अप्रैल 2017 को अंग्रेजी अखबार ‘द टेलीग्राफ’ में इतिहासकार रामचंद्र गुहा का चंपारण आंदोलन पर एक लेख छपा था।ये पंक्तियां उन्ही की हैं। यह लेख आंदोलन के सौ साल पूरा होने पर लिखा गया था।



चंपारण आंदोलन की पृष्ठभूमि

अंग्रेजी राज का जमाना था। अंग्रेज मसालों और रंगों के व्यापार से खूब मुनाफा कमा कमा रहे थे। यूरोप में इसकी बहुत मांग थी। रंगों में नील सबसे प्रमुख उत्पाद था जिसकी खेती चम्पारण में होती थी। नील एक पौधे से बनता था जिनके फूल गुलाबी या बैंगनी रंग के होते थे। चूंकि अंग्रेजों के लिए नील फायदे का सौदा था इसलिए उन्होंने चम्पारण के किसानों को नील की खेती के लिए मजबूर कर दिया। किसानों को इस उपज के लिए बहुत कम पैसा मिलता था और नील तैयार करने में उनकी सेहत भी खराब होती थी। इसलिए वे इसकी खेती नहीं करना चाहते थे। तब अंग्रेजों ने 19वी शताब्दी के शुरू में तीन कठिया प्रथा लागू कर दी। यानी किसानों को 20 कट्ठा में से तीन कठिया में नील की खेती अनिवार्य कर दी गयी। जो किसान खेती से इनकार करते, अंग्रेज उनकी जमीन जब्त कर लेते। विरोध करने वाले किसानों के साथ मारपीट करते और तरह-तरह के जुल्म ढाते।

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राजकुमार शुक्ल की इंट्री

राज कुमार शुक्ल चंपारण के मेहनती किसान थे। वे अपने साथियों की परेशानी और दुर्दशा से बहुत दुखी थे। 1908 में उन्होंने अपने इलाके के कई गांवों के किसानों को इस जुल्म के खिलाफ एकजुट किया। नतीजे के तौर पर नील की खेती बंद हो गयी। तब गुस्साये अंग्रेजों ने किसानों पर मुकदमा दर्ज कर जेल में डाल दिया। तब राज कुमार शुक्ल किसानों को न्याय दिलाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने लगे। मुकदमों के सिलसिले में वे मोतिहारी, मुजफ्फरपुर, पटना और कोलकाता जा कर वकीलों से मिलने लगे। चंपारण में किसानों पर अंग्रेज के जुल्म की खबरें उस समय के हिंदी अखबारों में प्रमुखता से छपती थीं। कानपुर से प्रकाशित होने वाले अखबार ‘प्रताप’ के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी ने भी इससे जुड़ी खबरें प्रकाशित कीं। उन्होंने राजकुमार शुक्ल को मशहूर वकील गांधी जी के बारे बताया जो दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे। इसके बाद राज कुमार शुक्ल ने ठान लिया कि वे किसानों को न्याय दिलाने के लिए गांधी जी को हर हाल में चंपारण लेकर जाएंगे। 1916 में जब लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था तब वे गांधी जी से मिले।

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गांधी जी को बुलाने की जिद

गांधी जी ने अपनी किताब ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ ( माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रुथ) में लिखा है, उनसे (राज कुमार शुक्ल)मिलने के पहले मैं चंपारण का नाम तक नहीं जानता था। इसका ख्याल तक भी न था कि नील की खेती भी होती है और इसके कारण किसानों को कष्ट भोगना पड़ता है। गांधी जी उस समय राजकुमार शुक्ल की बातों से बिल्कुल प्रभावित नहीं हुए। चम्पारण जाने के प्रति भी अनिच्छा जाहिर कर दी। लेकिन शुक्ल जी अपनी जिद पर अड़े रहे कि वे गांधी जी को जरूर चंपारण लेकर जाएंगे। वे बार-बार गांधी जी मिलते रहे। 7 अप्रैल 1917 को जब गांधी जी कोलकाता गये तो राजकुमार शुक्ल उन्हें लेने के लिए पहले से वहां जमे हुए थे। इस संदर्भ में गांधी जी लिखते हैं, इस अपढ़, अनगढ़ लेकिन निश्चयी किसान ने मुझे जीत लिया।



गांधी जी का चंपारण आगमन

10 अप्रैल 1917 को गांधी जी और राज कुमार शुक्ल रेलगाड़ी से पटना पहुंचे। फिर वे मुजफ्फरपुर पहुंचे। वहां गांधी जी को छोड़ कर राजकुमार शुक्ल चंपारण लौट गये। 15 अप्रैल 1917 को आखिरकार गांधी जी चंपारण की धरती पर पहुंचे। किसानों के न्याय दिलाने के लिए गांधी जी ने गांव-गांव घूम कर किसानों से बात की। नीलहा अंग्रेजों से भी मिले। सबके बयान दर्ज किये। उन्होंने पाया कि अंग्रेजों ने कई फर्जी आरोप मढ़ कर किसानों पर मुकदमे किए हैं। अंग्रेज अफसर गांधी जी के आने से घबराये हुए थे। इसलिए वे उन्हें भगाने के लिए तरह-तरह की कोशिशें करने लगे। लेकिन गांधी जी वहां डटे रहे। गांधी जी के सत्याग्रह के आगे अंग्रेजों को झुकना पड़ा। जून 1917 में एक जांच समिति गठित की गयी जिसमें गांधी जी को भी रखा गया। गांधी जी के चंपारण आंदोलन के कारण ब्रिटिश सरकार ने 1918 में चंपारण कृषि अधिनियम पारित किया जिससे तीनकठिया प्रथा की अनिवार्यता समाप्त हो गयी। 135 सालों से किसान जिस जुल्म को सह रहे थे उससे उन्हें मुक्ति मिल गयी। राज कुमार शुक्ल ने ही पहली बार गांधी जी को महात्मा कहा था। गांधी जी आये तो थे केवल चार दिन के लिए लेकिन चंपारण ऐसा भाया कि वे करीब दस महीने तक यहां रहे । इस दौरान भितिहरवा में आश्रम बनाया जो आज भी उस ऐतिहासिक पल की गवाही देता है।



चम्पारण आंदोलन का प्रभाव

गांधी जी का यह पहला सत्याग्रह आंदोलन था। बाद में सत्याग्रह आजादी की लड़ाई का प्रतीक बन गया। इससे किसी संघर्ष में अहिंसक आंदोलन की महत्ता स्थापित हुई। इस आंदोलन के महत्व को रेखांकित करते हुए इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं,-

“ चंपारण में उनके काम ने गांधी को यह विश्वास दिलाया कि वे भारतीय समाज के एक व्यापक वर्ग: किसानों, वकीलों, व्यापारियों, और अन्य लोगों के दिलो-दिमाग पर कब्जा कर सकते हैं। चंपारण के किसान गांधी के बहुत ऋणी थे, लेकिन गांधीजी उनसे भी ज़्यादा उनके ऋणी थे। उनके लिए काम करते हुए ही उन्होंने भारत में कृषि जीवन की कठिनाइयों को समझना शुरू किया, अपने पहले स्थिर और विश्वसनीय राजनीतिक साथियों (राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी, ब्रजकिशोर प्रसाद) से मिले, और यह विश्वास हासिल किया कि वे उन लोगों का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं जो उनकी अपनी जाति, समुदाय, वर्ग या क्षेत्र से नहीं थे। 1917 के वसंत और ग्रीष्म काल में उत्तर बिहार में बिताए उन हफ़्तों और महीनों ने गांधीजी को आगे आने वाली लंबी और कठिन लड़ाइयों के लिए तैयार किया। चंपारण न केवल भारत में गांधी का पहला राजनीतिक अनुभव था; बल्कि यह गांधीजी के राजनीतिक जीवन और इस प्रकार स्वतंत्रता संग्राम के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण था। असहयोग, नमक सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा, भारत छोड़ो आंदोलन और अंततः विदेशी शासन से देश की मुक्ति की राह में चंपारण पहला महत्वपूर्ण कदम था।”

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