नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार, 31 जुलाई को संसद से संविधान की दसवीं अनुसूची के प्रावधानों पर दोबारा विचार करने की सिफारिश की, जिसमें किसी विधायक की दलबदल के आधार पर अयोग्यता तय करने की जिम्मेदारी विधानसभा अध्यक्ष को सौंपी गई है।
यह सुझाव इसलिए दिया गया क्योंकि बार-बार ऐसे मामले सामने आए हैं जहाँ अध्यक्ष अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय लेने में देरी करते हैं, जिससे मामला पूरी विधानसभा की अवधि तक लंबित रह जाता है और दलबदलू विधायक बिना किसी दंड के बच निकलते हैं।
सीजीआई ने संसद से प्रावधानों पर दोबारा विचार करने की अपील
तेलंगाना विधानसभा के अध्यक्ष द्वारा दस बीआरएस (BRS) विधायकों की अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय में देरी करने के मामले में चीफ जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस ए. जी. मसीह की बेंच ने कड़ी आलोचना करते हुए संसद से इन प्रावधानों पर दोबारा विचार करने की अपील की है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि दसवीं अनुसूची संविधान में इस उद्देश्य से जोड़ी गई थी कि अयोग्यता मामलों को नियमित अदालती प्रक्रिया में होने वाली देरी से बचाया जा सके। लेकिन अगर अध्यक्ष ही मामलों को लंबित रखते हैं, तो यह व्यवस्था अपने उद्देश्य में विफल हो जाती है।
फैसले में संसद से क्या की गई अपील?
सीजेआई बी. आर. गवई द्वारा लिखे गए फैसले में संसद से अपील की गई है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हालाँकि हमारे पास इस पर परामर्शात्मक क्षेत्राधिकार नहीं है, लेकिन यह संसद के विवेक पर है कि वह तय करे कि अध्यक्ष/सभापति को अयोग्यता मामलों पर निर्णय की जिम्मेदारी सौंपना राजनीतिक दलबदल से प्रभावी ढंग से निपटने के उद्देश्य को पूरा कर रहा है या नहीं। यदि लोकतंत्र की बुनियाद और उसे बनाए रखने वाले सिद्धांतों की रक्षा करनी है, तो यह जांच आवश्यक है कि वर्तमान व्यवस्था पर्याप्त है या नहीं।
अयोग्यता मामले में सात महीने तक नहीं जारी किया गया नोटिस
फैसले में यह भी उल्लेख किया गया कि अयोग्यता याचिकाओं पर सात महीने तक नोटिस तक जारी नहीं किया गया, और केवल तब ही किया गया जब सुप्रीम कोर्ट में कार्यवाही प्रारंभ हुई या पहली सुनवाई हुई। इसलिए प्रश्न उठता है कि क्या अध्यक्ष ने त्वरित कार्रवाई की? संसद ने स्पीकर/चेयरमैन को यह जिम्मेदारी इसीलिए सौंपी थी कि मामलों का निपटारा शीघ्रता से हो। सात महीने तक कोई नोटिस जारी न करना, और केवल कोर्ट की कार्यवाही के बाद नोटिस जारी करना, किसी भी दृष्टिकोण से त्वरित कार्रवाई नहीं मानी जा सकती।
इससे पहले भी 2020 के केशम मेघचंद्र सिंह मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया था कि अयोग्यता से जुड़े मामलों के लिए एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण (ट्राइब्यूनल) होना चाहिए, क्योंकि अध्यक्ष राजनीतिक दबावों से पूरी तरह मुक्त होकर काम नहीं कर सकते। तब कोर्ट ने कहा था कि यह विचार करने का समय आ गया है कि क्या अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय देने की जिम्मेदारी ऐसे अध्यक्ष को सौंपी जानी चाहिए जो किसी राजनीतिक दल से संबंधित हैं। कानूनी रूप से या व्यवहारिक रूप से?
स्थायी ट्राइब्यूनल बनाने पर विचार की अपील
संसद को यह गंभीरता से विचार करना चाहिए कि संविधान में संशोधन कर अध्यक्ष की भूमिका को हटाकर, ऐसे विवादों के निपटारे के लिए सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाला एक स्थायी ट्राइब्यूनल बनाया जाए। यह प्रक्रिया निष्पक्ष और त्वरित होनी चाहिए, जिससे दसवीं अनुसूची की प्रभावशीलता सुनिश्चित हो सके, जो हमारे लोकतंत्र के सुचारु संचालन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
21 जनवरी 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने अयोग्यता तय करने के बारे में स्पीकर के अधिकार के बारे में संसद से दोबारा विचार करने को कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने संसद से कहा था कि स्पीकर भी एक राजनीतिक दल के होते हैं ऐसे में उनके द्वारा अयोग्यता पर फैसले लेने के बारे में संसद को विचार करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर विधानसभा के स्पीकर से कहा था कि वह मणिपुर के वन मंत्री व बीजेपी विधायक श्यामकुमार को अयोग्य ठहराए जाने की मांग पर चार हफ्ते में फैसला लें।
यह सुझाव इसलिए दिया गया क्योंकि बार-बार ऐसे मामले सामने आए हैं जहाँ अध्यक्ष अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय लेने में देरी करते हैं, जिससे मामला पूरी विधानसभा की अवधि तक लंबित रह जाता है और दलबदलू विधायक बिना किसी दंड के बच निकलते हैं।
सीजीआई ने संसद से प्रावधानों पर दोबारा विचार करने की अपील
तेलंगाना विधानसभा के अध्यक्ष द्वारा दस बीआरएस (BRS) विधायकों की अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय में देरी करने के मामले में चीफ जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस ए. जी. मसीह की बेंच ने कड़ी आलोचना करते हुए संसद से इन प्रावधानों पर दोबारा विचार करने की अपील की है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि दसवीं अनुसूची संविधान में इस उद्देश्य से जोड़ी गई थी कि अयोग्यता मामलों को नियमित अदालती प्रक्रिया में होने वाली देरी से बचाया जा सके। लेकिन अगर अध्यक्ष ही मामलों को लंबित रखते हैं, तो यह व्यवस्था अपने उद्देश्य में विफल हो जाती है।
फैसले में संसद से क्या की गई अपील?
सीजेआई बी. आर. गवई द्वारा लिखे गए फैसले में संसद से अपील की गई है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हालाँकि हमारे पास इस पर परामर्शात्मक क्षेत्राधिकार नहीं है, लेकिन यह संसद के विवेक पर है कि वह तय करे कि अध्यक्ष/सभापति को अयोग्यता मामलों पर निर्णय की जिम्मेदारी सौंपना राजनीतिक दलबदल से प्रभावी ढंग से निपटने के उद्देश्य को पूरा कर रहा है या नहीं। यदि लोकतंत्र की बुनियाद और उसे बनाए रखने वाले सिद्धांतों की रक्षा करनी है, तो यह जांच आवश्यक है कि वर्तमान व्यवस्था पर्याप्त है या नहीं।
अयोग्यता मामले में सात महीने तक नहीं जारी किया गया नोटिस
फैसले में यह भी उल्लेख किया गया कि अयोग्यता याचिकाओं पर सात महीने तक नोटिस तक जारी नहीं किया गया, और केवल तब ही किया गया जब सुप्रीम कोर्ट में कार्यवाही प्रारंभ हुई या पहली सुनवाई हुई। इसलिए प्रश्न उठता है कि क्या अध्यक्ष ने त्वरित कार्रवाई की? संसद ने स्पीकर/चेयरमैन को यह जिम्मेदारी इसीलिए सौंपी थी कि मामलों का निपटारा शीघ्रता से हो। सात महीने तक कोई नोटिस जारी न करना, और केवल कोर्ट की कार्यवाही के बाद नोटिस जारी करना, किसी भी दृष्टिकोण से त्वरित कार्रवाई नहीं मानी जा सकती।
इससे पहले भी 2020 के केशम मेघचंद्र सिंह मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया था कि अयोग्यता से जुड़े मामलों के लिए एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण (ट्राइब्यूनल) होना चाहिए, क्योंकि अध्यक्ष राजनीतिक दबावों से पूरी तरह मुक्त होकर काम नहीं कर सकते। तब कोर्ट ने कहा था कि यह विचार करने का समय आ गया है कि क्या अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय देने की जिम्मेदारी ऐसे अध्यक्ष को सौंपी जानी चाहिए जो किसी राजनीतिक दल से संबंधित हैं। कानूनी रूप से या व्यवहारिक रूप से?
स्थायी ट्राइब्यूनल बनाने पर विचार की अपील
संसद को यह गंभीरता से विचार करना चाहिए कि संविधान में संशोधन कर अध्यक्ष की भूमिका को हटाकर, ऐसे विवादों के निपटारे के लिए सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाला एक स्थायी ट्राइब्यूनल बनाया जाए। यह प्रक्रिया निष्पक्ष और त्वरित होनी चाहिए, जिससे दसवीं अनुसूची की प्रभावशीलता सुनिश्चित हो सके, जो हमारे लोकतंत्र के सुचारु संचालन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
21 जनवरी 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने अयोग्यता तय करने के बारे में स्पीकर के अधिकार के बारे में संसद से दोबारा विचार करने को कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने संसद से कहा था कि स्पीकर भी एक राजनीतिक दल के होते हैं ऐसे में उनके द्वारा अयोग्यता पर फैसले लेने के बारे में संसद को विचार करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर विधानसभा के स्पीकर से कहा था कि वह मणिपुर के वन मंत्री व बीजेपी विधायक श्यामकुमार को अयोग्य ठहराए जाने की मांग पर चार हफ्ते में फैसला लें।
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