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पुण्यतिथि विशेष : ताराशंकर बंद्योपाध्याय की लेखनी समाज के लिए दर्पण, ग्रामीण भारत को मिली आवाज

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New Delhi, 14 सितंबर . बांग्ला साहित्य के महान उपन्यासकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय की पुण्यतिथि पर साहित्य जगत उन्हें याद कर रहा है. 14 सितंबर को उपन्यासकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय की पुण्यतिथि मनाई जाती है, जो उनके साहित्यिक अवदान और जीवन को याद करने का अवसर है. वे बंगाली साहित्य के एक महान स्तंभ थे और भारतीय साहित्य के क्षेत्र में उनका योगदान अतुलनीय है. उनकी रचनाएं ग्रामीण जीवन, सामाजिक परिवर्तन और स्वतंत्रता संग्राम के मुद्दों को गहराई से दर्शाती हैं, जो आज भी प्रासंगिक हैं.

ताराशंकर बंद्योपाध्याय का जन्म 23 जुलाई 1898 को पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के लाभपुर गांव में हुआ था. उनके पिता हरिदास और माता प्रभावती देवी थीं. 1916 में उन्होंने अपने गांव से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की. उच्च शिक्षा के लिए वे कोलकाता पहुंचे, जहां उन्होंने सेंट जेवियर्स कॉलेज और बाद में दक्षिणी सबअर्बन कॉलेज (वर्तमान में आशुतोष महाविद्यालय) में पढ़ाई की, लेकिन स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी के कारण उनकी पढ़ाई अधूरी रह गई.

Government of India के संस्कृति मंत्रालय के अनुसार, उनकी कृति धात्री देवता (1939) में ताराशंकर ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ग्रामीण सुधार और उग्र राष्ट्रवाद की दो समानांतर धाराओं को उभारा, साथ ही अपने इन आंदोलनों से जुड़ाव को भी दर्शाया.

ताराशंकर बंदोपाध्याय की कहानियां और उपन्यास सामाजिक सच्चाई और मान्यताओं को अपने आप में समेटे हुए हैं. सामाजिक व्यवस्था और कुरीतियों को कलमबद्ध करके उन्होंने लोगों के मानस को झकझोरने का काम किया है. उनकी समस्त रचनाएं समाज के रूढ़िवाद और पाखंड को उजागर करने के साथ-साथ मानवीय संबंधों की सच्चाई से रूबरू कराती हैं. एक जमींदार परिवार में जन्म लेने वाले बंदोपाध्याय ने अपनी लेखनी की धार से जमींदारी व्यवस्था की खामियों का भी पर्दाफाश किया.

बाद में ताराशंकर ने साहित्य सृजन को अपना जीवन समर्पित किया. उन्होंने नाटक और कविताओं से शुरुआत की और फिर ग्रामीण बंगाल के जीवन, समाज, संघर्ष और संस्कृति को अपनी लेखनी में उतारा. उनकी रचनाओं में 65 से अधिक उपन्यास, 100 से ज्यादा कहानियां और कई नाटक शामिल हैं. ताराशंकर की रचनाओं की खासियत उनकी भाषा की सरलता और गहराई है. वे बांग्ला की लोकभाषा को साहित्यिक ऊंचाई प्रदान करते थे.

उन्होंने ग्रामीण बंगाल की सांस्कृतिक और सामाजिक जटिलताओं को अपनी रचनाओं में जीवंत रूप से उकेरा. उनके उपन्यास न केवल कथा-कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं, बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों के संघर्षों को प्रतिबिंबित करने वाले दर्पण भी हैं.

उनके उपन्यास गणदेवता के लिए 1966 में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इससे पहले, 1956 में आरोग्य निकेतन के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. 1969 में Government of India ने उन्हें साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के लिए पद्म भूषण से नवाजा.

ऐसा कहा जाता है कि 1971 में ताराशंकर बंद्योपाध्याय का नाम साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित हुआ था, लेकिन उस वर्ष यह पुरस्कार चिली के कवि पाब्लो नेरूदा को मिला. यह जानकारी 50 वर्ष बाद सार्वजनिक हुई. साहित्य को समर्पित इस नायक का निधन 14 सितंबर 1971 को कलकत्ता में हुआ.

एकेएस/डीकेपी

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