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सुरेन्द्र वर्मा: हिन्दी साहित्य और नाटक के अग्रणी सितारे, रचनाओं में परंपरा-आधुनिकता का अनूठा संगम

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New Delhi, 6 सितंबर . हिन्दी साहित्य और नाटक के क्षेत्र में सुरेन्द्र वर्मा का नाम एक चमकते सितारे की तरह है. उन्होंने अपने साहित्यिक और नाटकीय योगदान से हिन्दी साहित्य को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया. उनके लेखन में परंपरा और आधुनिकता का अनूठा संगम देखने को मिलता है, जो पाठकों को गहरे चिंतन के लिए प्रेरित करता है.

उत्तर प्रदेश के झांसी में 7 सितंबर 1941 को जन्मे सुरेंद्र वर्मा का हिंदी साहित्य में विशेष योगदान है. भाषा विज्ञान में स्नातकोत्तर (एम.ए.) करने वाले वर्मा ने अपने करियर की शुरुआत एक शिक्षक के रूप में की, लेकिन उनकी सृजनात्मक प्रतिभा ने उन्हें जल्द ही पूर्णकालिक लेखन की ओर प्रेरित किया.

सुरेन्द्र वर्मा का पहला नाटक ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ (1972) ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई. इस नाटक को छह भारतीय भाषाओं में अनुवादित किया गया और 1974 में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) के रेपर्टरी कंपनी ने इसका मंचन किया. नाटककार अमोल पालेकर ने इसे 1972 में मराठी में मंचित किया और बाद में 2003 में इसे मराठी फिल्म ‘अनहट’ के रूप में रूपांतरित किया. यह नाटक नारी कामुकता, लैंगिक समानता और मानव संबंधों जैसे जटिल विषयों को समकालीन दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है.

वर्मा ने लगभग 15 पुस्तकें प्रकाशित कीं, जिनमें उपन्यास, लघुकथाएं, व्यंग्य और नाटक शामिल हैं. उनके उपन्यास ‘मुझे चांद चाहिए’ (1993) ने 1996 में साहित्य अकादमी पुरस्कार जीता. इस उपन्यास में आधुनिक समाज की जटिलताओं और मानवीय संवेदनाओं को गहराई से चित्रित किया गया है. इसके अलावा, 1993 में उन्हें सांगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और 2016 में व्यास सम्मान से सम्मानित किया गया. उनके अन्य उल्लेखनीय नाटकों में ‘छोटे सैयद, बड़े सैयद’ (1978), ‘आठवां सर्ग’ (1976), ‘कैद-ए-हयात’ (1989) और ‘द्रौपदी’ शामिल हैं. ‘कैद-ए-हयात’ में मिर्जा गालिब के जीवन और उनकी व्यक्तिगत चुनौतियों को संवेदनशीलता से दर्शाया गया है.

सुरेन्द्र वर्मा का लेखन भारतीय मिथकों और इतिहास से प्रेरित है, जिसे वे आधुनिक संदर्भों में ढालकर प्रस्तुत करते हैं. उनके नाटकों में कालिदास, चंद्रगुप्त, शकुंतला और गालिब जैसे ऐतिहासिक चरित्रों को नई व्याख्या के साथ प्रस्तुत किया गया है. उनकी रचनाएं सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती देती हैं और लैंगिक समानता, मानवीय रिश्तों और नैतिकता जैसे विषयों पर विचार करने के लिए प्रेरित करती हैं.

नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के साथ उनका लंबा जुड़ाव रहा, जिसने उनके नाटकों को मंच पर जीवंत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. वर्मा की रचनाएं न केवल हिन्दी साहित्य प्रेमियों के बीच लोकप्रिय हैं, बल्कि विभिन्न भाषाओं में अनुवाद के माध्यम से व्यापक दर्शकों तक पहुंची हैं. उनकी लेखनी में प्राचीन परंपराओं और आधुनिक विचारों का संतुलन देखने को मिलता है, जो उन्हें अपने समय से आगे का रचनाकार बनाता है.

सुरेन्द्र वर्मा का साहित्यिक योगदान हिन्दी साहित्य और रंगमंच के लिए अमूल्य है. उनकी रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं और नई पीढ़ी को सामाजिक मुद्दों पर सोचने के लिए प्रेरित करती हैं.

एससीएच/डीएससी

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