विदेशी संस्थागत निवेशक (FII) इस साल भारतीय शेयर बाजार से लगभग 2 लाख करोड़ रुपये निकाल चुके हैं। यह निकासी मुख्य रूप से सेकेंडरी मार्केट से हुई है, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इसी दौरान उन्होंने लगभग 55,000 करोड़ रुपये नए आईपीओ में लगाए हैं। बाजार विशेषज्ञ इस विरोधाभासी प्रवृत्ति को ‘द ग्रेट डाइवर्जेंस’ कह रहे हैं यानी यह भरोसे की कमी नहीं, बल्कि निवेश रणनीति में बदलाव का संकेत है।
हेज फंड बनाम दीर्घकालिक निवेशकट्रस्टलाइन होल्डिंग्स के संस्थापक और सीईओ एन अरुणागिरी के अनुसार यह समझना जरूरी है कि निवेशक कौन हैं और वे क्या कर रहे हैं। सेकेंडरी मार्केट में बिकवाली मुख्य रूप से शॉर्ट-टर्म और ग्लोबल ट्रेंड पर निर्भर हेज फंड्स कर रहे हैं। इनमें से कई फंड चीन री-अलोकेशन ट्रेड, एआई प्रॉक्सी ट्रेड और अमेरिकी बाजारों की एआई उछाल से प्रभावित हैं।
इन फंड्स के लिए भारत वर्तमान में एआई थीम में अंडरपरफॉर्मिंग बाजार माना जा रहा है।
दूसरी ओर, प्राथमिक बाजार (आईपीओ) में जो निवेश हो रहा है, वह दीर्घकालिक निवेशकों, जैसे सॉवरेन फंड, पेंशन फंड और ग्लोबल लॉन्ग-ओनली मैनेजर्स, द्वारा किया जा रहा है। ये निवेशक भारत की लंबी अवधि की ग्रोथ स्टोरी पर भरोसा रखते हैं और नए उभरते सेक्टर में एंकर निवेश करना पसंद करते हैं।
13 साल के निचले स्तर पर FII की हिस्सेदारीFII की भारतीय इक्विटी में हिस्सेदारी सितंबर 2025 तक घटकर मात्र 16.71% रह गई है, जो पिछले 13 वर्षों का सबसे निचला स्तर है। बावजूद इसके, विदेशी निवेशक इस साल के रिकॉर्ड तोड़ आईपीओ सीजन में सक्रिय रहे हैं। 84 कंपनियां लिस्ट हुईं और 1.3 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा जुटाए गए। इनमें एचडीबी फाइनेंशियल, टाटा कैपिटल, जेएसडब्ल्यू सीमेंट, अर्बन कंपनी, एलजी इलेक्ट्रॉनिक्स, हेक्सावेयर टेक और केनरा एचएसबीसी लाइफ इंश्योरेंस जैसी बड़ी कंपनियां शामिल हैं।
वैल्यूएशन का खेल: क्यों बदल रही है रणनीतिलाइटहाउस कैंटन के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर प्रदीप गुप्ता के अनुसार, इस विभाजन की बड़ी वजह वैल्यूएशन का अनुशासन है। पिछले चार-पांच तिमाहियों में कॉरपोरेट कमाई में सुस्ती, भू-राजनीतिक तनाव, रुपये की कमजोरी और अन्य उभरते बाजारों की तुलना में ऊंचे वैल्यूएशन ने सेकेंडरी मार्केट को कमजोर किया है।
FII अब मुनाफा बुक कर रहे हैं और आईपीओ या क्यूआईपी में आकर्षक वैल्यूएशन पर दोबारा एंट्री ले रहे हैं। यानी महंगे शेयर बेचकर सस्ते और संभावनाशील आईपीओ में निवेश करना उनकी नई रणनीति बन गई है।
नई उम्र की कंपनियों पर नहीं, वैल्यू पर फोकसग्रीन पोर्टफोलियो पीएमएस की अंचल कंसल कहती हैं कि FIIs अब ऐसी कंपनियों में पैसा लगा रहे हैं, जिनका उपयोग सीधे बिजनेस एक्सपेंशन और ऋण घटाने में होता है। सेकेंडरी मार्केट में वे जोखिम से बच रहे हैं और अपने पोर्टफोलियो को पुनर्गठित कर रहे हैं।
हालांकि आईपीओ बाजार में उनकी दिलचस्पी बढ़ी है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे हर नई कंपनी पर दांव लगा रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, FIIs अब सिलेक्टिव इन्वेस्टमेंट पर जोर दे रहे हैं, यानी वे केवल उन्हीं आईपीओ में पैसा लगा रहे हैं जो वैल्यू और ग्रोथ दोनों का संतुलन प्रदान करते हैं।
आगे क्या? क्या लौटेंगे बड़े विदेशी निवेशक?अब सवाल यह है कि क्या FIIs की बिकवाली जारी रहेगी या आईपीओ बाजार की रफ्तार दोबारा शेयर बाजार में उत्साह भरेगी। विशेषज्ञों का मानना है कि सबसे बुरा समय शायद अब बीत चुका है। प्रदीप गुप्ता कहते हैं, “भारतीय बाजार पिछले एक साल में स्थिर हुए हैं और वैल्यूएशन अब ज्यादा आकर्षक लग रहे हैं।”
कंसल का भी मानना है कि हाल की बिकवाली भारत की कहानी में अविश्वास नहीं बल्कि वैश्विक अनिश्चितता और लाभ बुकिंग का परिणाम थी। जैसे-जैसे स्थिरता लौटेगी और नीतिगत प्रोत्साहन बढ़ेंगे, विदेशी निवेशक फिर से क्वालिटी लार्ज कैप शेयरों की ओर रुख कर सकते हैं।
विदेशी निवेशकों की यह रणनीतिक शिफ्ट बताती है कि भारत की आर्थिक कहानी पर भरोसा बरकरार है। फर्क बस इतना है कि अब वे लंबी अवधि की वैल्यू और ग्रोथ पर दांव लगा रहे हैं, न कि अल्पकालिक मुनाफे पर। आने वाले महीनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि आईपीओ का उत्साह मुख्य बाजार तक लौटता है या नहीं।
(अस्वीकरण: विशेषज्ञों द्वारा दी गई सिफारिशें, सुझाव, विचार और राय उनके अपने हैं। ये इकोनॉमिक टाइम्स हिन्दी के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।)
हेज फंड बनाम दीर्घकालिक निवेशकट्रस्टलाइन होल्डिंग्स के संस्थापक और सीईओ एन अरुणागिरी के अनुसार यह समझना जरूरी है कि निवेशक कौन हैं और वे क्या कर रहे हैं। सेकेंडरी मार्केट में बिकवाली मुख्य रूप से शॉर्ट-टर्म और ग्लोबल ट्रेंड पर निर्भर हेज फंड्स कर रहे हैं। इनमें से कई फंड चीन री-अलोकेशन ट्रेड, एआई प्रॉक्सी ट्रेड और अमेरिकी बाजारों की एआई उछाल से प्रभावित हैं।
इन फंड्स के लिए भारत वर्तमान में एआई थीम में अंडरपरफॉर्मिंग बाजार माना जा रहा है।
दूसरी ओर, प्राथमिक बाजार (आईपीओ) में जो निवेश हो रहा है, वह दीर्घकालिक निवेशकों, जैसे सॉवरेन फंड, पेंशन फंड और ग्लोबल लॉन्ग-ओनली मैनेजर्स, द्वारा किया जा रहा है। ये निवेशक भारत की लंबी अवधि की ग्रोथ स्टोरी पर भरोसा रखते हैं और नए उभरते सेक्टर में एंकर निवेश करना पसंद करते हैं।
13 साल के निचले स्तर पर FII की हिस्सेदारीFII की भारतीय इक्विटी में हिस्सेदारी सितंबर 2025 तक घटकर मात्र 16.71% रह गई है, जो पिछले 13 वर्षों का सबसे निचला स्तर है। बावजूद इसके, विदेशी निवेशक इस साल के रिकॉर्ड तोड़ आईपीओ सीजन में सक्रिय रहे हैं। 84 कंपनियां लिस्ट हुईं और 1.3 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा जुटाए गए। इनमें एचडीबी फाइनेंशियल, टाटा कैपिटल, जेएसडब्ल्यू सीमेंट, अर्बन कंपनी, एलजी इलेक्ट्रॉनिक्स, हेक्सावेयर टेक और केनरा एचएसबीसी लाइफ इंश्योरेंस जैसी बड़ी कंपनियां शामिल हैं।
वैल्यूएशन का खेल: क्यों बदल रही है रणनीतिलाइटहाउस कैंटन के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर प्रदीप गुप्ता के अनुसार, इस विभाजन की बड़ी वजह वैल्यूएशन का अनुशासन है। पिछले चार-पांच तिमाहियों में कॉरपोरेट कमाई में सुस्ती, भू-राजनीतिक तनाव, रुपये की कमजोरी और अन्य उभरते बाजारों की तुलना में ऊंचे वैल्यूएशन ने सेकेंडरी मार्केट को कमजोर किया है।
FII अब मुनाफा बुक कर रहे हैं और आईपीओ या क्यूआईपी में आकर्षक वैल्यूएशन पर दोबारा एंट्री ले रहे हैं। यानी महंगे शेयर बेचकर सस्ते और संभावनाशील आईपीओ में निवेश करना उनकी नई रणनीति बन गई है।
नई उम्र की कंपनियों पर नहीं, वैल्यू पर फोकसग्रीन पोर्टफोलियो पीएमएस की अंचल कंसल कहती हैं कि FIIs अब ऐसी कंपनियों में पैसा लगा रहे हैं, जिनका उपयोग सीधे बिजनेस एक्सपेंशन और ऋण घटाने में होता है। सेकेंडरी मार्केट में वे जोखिम से बच रहे हैं और अपने पोर्टफोलियो को पुनर्गठित कर रहे हैं।
हालांकि आईपीओ बाजार में उनकी दिलचस्पी बढ़ी है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे हर नई कंपनी पर दांव लगा रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, FIIs अब सिलेक्टिव इन्वेस्टमेंट पर जोर दे रहे हैं, यानी वे केवल उन्हीं आईपीओ में पैसा लगा रहे हैं जो वैल्यू और ग्रोथ दोनों का संतुलन प्रदान करते हैं।
आगे क्या? क्या लौटेंगे बड़े विदेशी निवेशक?अब सवाल यह है कि क्या FIIs की बिकवाली जारी रहेगी या आईपीओ बाजार की रफ्तार दोबारा शेयर बाजार में उत्साह भरेगी। विशेषज्ञों का मानना है कि सबसे बुरा समय शायद अब बीत चुका है। प्रदीप गुप्ता कहते हैं, “भारतीय बाजार पिछले एक साल में स्थिर हुए हैं और वैल्यूएशन अब ज्यादा आकर्षक लग रहे हैं।”
कंसल का भी मानना है कि हाल की बिकवाली भारत की कहानी में अविश्वास नहीं बल्कि वैश्विक अनिश्चितता और लाभ बुकिंग का परिणाम थी। जैसे-जैसे स्थिरता लौटेगी और नीतिगत प्रोत्साहन बढ़ेंगे, विदेशी निवेशक फिर से क्वालिटी लार्ज कैप शेयरों की ओर रुख कर सकते हैं।
विदेशी निवेशकों की यह रणनीतिक शिफ्ट बताती है कि भारत की आर्थिक कहानी पर भरोसा बरकरार है। फर्क बस इतना है कि अब वे लंबी अवधि की वैल्यू और ग्रोथ पर दांव लगा रहे हैं, न कि अल्पकालिक मुनाफे पर। आने वाले महीनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि आईपीओ का उत्साह मुख्य बाजार तक लौटता है या नहीं।
(अस्वीकरण: विशेषज्ञों द्वारा दी गई सिफारिशें, सुझाव, विचार और राय उनके अपने हैं। ये इकोनॉमिक टाइम्स हिन्दी के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।)
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