नेपाल में लोकतंत्र 17 साल का हुआ है और 12 सरकारें बदल चुकी हैं.
किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए 17 साल की उम्र कोई बड़ी नहीं होती है.
बढ़ती उम्र के साथ ही कोई व्यवस्था परिपक्व होती है लेकिन नेपाल के लोग 17 साल की तुलना में 239 साल राजशाही व्यवस्था में भी रहे हैं.
ऐसे में कई बार यहाँ लोकतंत्र की तुलना राजशाही व्यवस्था से भी होती है.
पिछले दो दिनों में जो कुछ भी हुआ, उससे नेपाल में लोकतंत्र के भविष्य को लेकर कई तरह के सवाल उठने लगे हैं.
दो दिनों के विरोध प्रदर्शन में ही प्रधानमंत्री केपी ओली की सरकार को न केवल सरेंडर करना पड़ा बल्कि प्रधानमंत्री से लेकर मंत्रियों तक को अपनी जान बचाने के लिए भागना पड़ा.
विदेश मंत्री आरजू देउबा के साथ मारपीट हुई.
सोमवार को नेपाल के नौजवान सड़कों पर उतरे तो इसे जेन ज़ी आंदोलन कहा गया. नेपाल की सरकार ने सोशल मीडिया को बैन कर दिया था. इस बैन ने नेपाल के आम लोगों की सरकार से लंबे समय की नाराज़गी में चिंगारी का काम किया.
पहले ही दिन एक दर्जन से ज़्यादा नौजवान प्रदर्शनकारी मारे गए. दूसरे दिन इसकी तीखी प्रतिक्रिया का अंदाज़ा था लेकिन इस कदर हिंसा होगी, ऐसा किसी ने नहीं सोचा था. प्रदर्शनकारियों से संसद, सिंह दरबार, राष्ट्रपति भवन, सुप्रीम कोर्ट से लेकर प्रधानमंत्री आवास तक में आग लगा दी. ऐसा सब कुछ आर्मी की नाक के नीचे होता रहा.
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जब मंगलवार शाम काठमांडू के आसमान में धुएं का ग़ुबार उठ रहा था तो नेपाल के सरलाही से निर्दलीय सांसद अमरेश सिंह अपने घर की छत पर अकेले खड़े थे.
अमरेश सिंह ने बीबीसी हिन्दी से कहा, ''पिछले दो दिनों में नेपाल को जो नुक़सान हुआ है, उसकी भरपाई में सालों लग जाएंगे. कुछ भी तो नहीं बचा है. नेपाल को किसी भी संस्थान की इमारत खड़ी करने में सालों लग जाते हैं.''
अमरेश सिंह ने कहा, ''नेपाल में संसद, सिंह दरबार और राष्ट्रपति भवन की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी आर्मी के पास थी लेकिन वहाँ भी लोगों ने आग लगा दी. हम तो आर्मी से यही उम्मीद करते हैं कि सुरक्षा सुनिश्चित करेगी. सोमवार को जिस तरीक़े से नौजवानों को मारा गया था, उससे ज़्यादा क्रूरता कुछ हो नहीं सकती है लेकिन सेना को इसके बाद सतर्क हो जाना चाहिए था.''
अब नेपाल किस दिशा में बढ़ेगा?
अमरेश सिंह कहते है, ''कुछ भी कहा नहीं जा सकता है. मैं एक मधेसी सांसद हूं और नेपाल में मधेसी ऐसे भी हाशिए पर हैं. हमारे लिए कुछ कहना भी इतना आसान नहीं होता है. अगर इस तरह के आंदोलन में मधेसी शामिल होते तो आप कल्पना नहीं कर सकते हैं कि प्रशासन कितनी सख़्ती से पेश आता.''
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नेपाल की आर्मी ने मंगलवार की रात एक बयान जारी कर लोगों से शांति की अपील की है.
आर्मी ने बयान में कहा, 'हम आंदोलनरत लोगों से अपील करते हैं कि वह विरोध-प्रदर्शन रोक दें और देश के लिए बातचीत के ज़रिए शांतिपूर्ण समाधान के लिए आगे आएं. हमें इन मुश्किल हालात को सामान्य करना होगा और निजी, सार्वजनिक संपत्तियों समेत अपनी ऐतिहासिक और राष्ट्रीय धरोहरों को सुरक्षित रखना होगा. आम लोगों और दूतावासों की सुरक्षा भी सुनिश्चित करनी होगी.''
दीप कुमार उपाध्याय भारत में नेपाल के राजदूत रहे हैं.
उपाध्याय अभी कपिलवस्तु में रहते हैं. मंगलवार को कपिलवस्तु स्थित उनके घर में लोगों ने आग लगा दी.
पूरे मामले पर दीप कुमार उपाध्याय ने बीबीसी हिन्दी से कहा, ''मैं तो कोई सक्रिय राजनीति में भी नहीं था. मेरी तबीयत भी बहुत ठीक नहीं रहती है और लोगों ने यहाँ लूटपाट करने के बाद आग लगा दी. हमें हमले की जानकारी मिल गई थी, इसलिए किसी तरह जान बचाकर भागे.''
दीप कुमार उपाध्याय कहते हैं कि लोग आर्मी से सवाल पूछ सकते हैं कि संसद, राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री आवास और सिंह दरबार की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उसके पास थी तो यहाँ आग कैसे लगा दी गई?
उपाध्याय कहते हैं, ''मुझे नहीं पता कि ये जानबूझकर हुआ है या फिर इस डर से कि कहीं और ज़्यादा लोगों की जान न चली जाए. मुझे लगता है कि आर्मी ने आक्रोशित भीड़ को सब कुछ करने दिया कि लोगों का ग़ुस्सा ठंडा हो जाए.''
दीप कुमार उपाध्याय कहते हैं कि आने वाले दिनों में क़ानून व्यवस्था को लेकर चुनौती बढ़ने वाली है.
उन्होंने कहा, ''लोगों ने बैंक लूटना शुरू कर दिया था. लेकिन 10 बजे रात के बाद आर्मी ने पूरा कंट्रोल अपने हाथ में लिया तो चीज़ें काबू में आईं. ऐसे में लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा है कि आर्मी को पहले ही ऐसा करना चाहिए था. जेल से सारे क़ैदी बाहर आ गए हैं, ऐसे में क़ानून व्यवस्था को लेकर चुनौती और बढ़ गई है.''
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लोकराज बराल भारत में नेपाल के राजदूत रहे हैं.
बराल के लिए भी यह बात चौंकाने वाली थी कि संसद, राष्ट्रपति निवास, सिंह दरबार और प्रधानमंत्री आवास की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी आर्मी के पास थी तब भी सब कुछ जलने क्यों दिया गया.
लोकराज बराल ने बीबीसी हिन्दी से कहा, ''सुप्रीम कोर्ट के पीछे ही आर्मी का मुख्यालय है लेकिन देश की सर्वोच्च अदालत को भी आग के हवाले कर दिया गया. ये सब कैसे हुआ, लोग तो पूछेंगे ही."
"हम ख़ुद ही हैरान हैं कि ये सब कैसे हुआ. पुलिस ने कैसे चीज़ों को हैंडल किया, ये तो पूछा ही जाएगा. दूसरे दिन के आंदोलन में केवल जेन ज़ी नहीं थे. दूसरे दिन वैसे लोग भी शामिल हो गए थे, जिनके मन में लोगों से निजी रंज़िश थी.''
लोकराज बराल कहते हैं, ''मुझे नहीं पता है कि आर्मी ने इसे जानबूझकर होने दिया. लेकिन इस तरह के सवाल तो लोगों के मन में उठ रहे हैं. कई लोगों का कहना है कि इसमें बाहरी शक्तियां भी शामिल थीं. लेकिन ऐसा कहने के लिए हमारे पास सबूत होने चाहिए. आम लोगों में नाराज़गी तो भयानक है. लोगों का मानना है कि नेपाल के तीन नेता ओली, प्रचंड और देउबा आपस में सत्ता की कुर्सी बाँटते रहते हैं.''
नेपाल में एक तबका यह भी सवाल पूछ रहा है कि अगर ग़ुस्सा मौजूदा सत्ता से था तो संसद को आग के हवाले क्यों किया? क्या नई व्यवस्था जो आएगी, उसे संसद की ज़रूरत नहीं होगी?
नेपाल के थिंक टैंक मार्टिन चौतारी के सीनियर रिसर्चर रमेश पराजुली कहते हैं कि आर्मी की भूमिका को लेकर सबसे बड़ा सवाल है.
पराजुली ने कहा, ''आर्मी अगर चाहती तो चीज़ों को नियंत्रित कर सकती थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. मुझे लगता है कि थोड़ा समय लगेगा और चीज़ें स्पष्ट होंगी. संसद में आग लगाने का क्या मतलब है? कांतिपुर अख़बार के दफ़्तर में क्यों आग लगाई गई? हर कोई जानता है कि कांतिपुर रवि लामीछाने के निशाने पर था. नेपाल में जो कुछ भी हुआ है, उसे केवल नेपाल के लोगों ने ही नहीं किया है बल्कि इसमें बाहरी शक्तियों का भी हाथ है.''
क्या इस हिंसक आंदोलन के बाद नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टियां बेअसर हो जाएंगी? क्या ओली और प्रचंड बेअसर हो जाएंगे?
रमेश पराजुली कहते हैं, ''मुझे ऐसा नहीं लगता है. अभी भले ये कमज़ोर दिख रहे हैं लेकिन ख़त्म नहीं होंगे. नेपाल में राजशाही ख़त्म करने में इनकी अहम भूमिका रही है.''
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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