'सिस्टर मिडनाइट', 'संतोष' और 'ऑल वी इमेजिन एज़ लाइट' जैसी फ़िल्में उन नई महिला केंद्रित भारतीय फ़िल्मों का हिस्सा हैं जो परंपरागत बॉलीवुड हीरोइन की छवि को चुनौती दे रही हैं.
इन फिल्मों में दिखने वाली महिलाएं अलग हैं – कभी मज़ाकिया, कभी बेबाक, और कई बार बोल्ड भी. सबसे ख़ास बात ये है कि ये महिलाएं ख़ुद अपनी कहानियों की नायिकाएं हैं, ना कि किसी मर्द की ज़िंदगी का महज हिस्सा भर.
'सिस्टर मिडनाइट', 'संतोष', 'ऑल वी इमेजिन एज़ लाइट', 'गर्ल्स विल बी गर्ल्स' और 'शेडोबॉक्स' जैसी फ़िल्मों की हीरोइन, अंतरराष्ट्रीय दर्शकों को भारत की ऐसी महिला किरदारों से रूबरू करवा रही हैं जो परंपरागत बॉलीवुड हीरोइन से काफ़ी अलग हैं.
लेकिन क्या भारतीय दर्शक उन महिला किरदारों को देखना चाहते हैं और क्या उन्हें इन किरदारों को देखने का मौका मिलेगा.
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करन कंधारी की कॉमेडी फ़िल्म 'सिस्टर मिडनाइट' की मुख्य किरदार उमा है. उमा को उनकी मर्जी के बिना एक अरेंज मैरिज में बांधा गया है जिसमें ना उनकी दिलचस्पी है और ना ही उनके दूल्हे की.
इस फ़िल्म को 2024 के कान फ़िल्म समारोह में प्रीमियर किया गया और इसे बाफ्टा के लिए भी नॉमिनेट किया गया. बॉलीवुड की जानी-मानी हीरोइन राधिका आप्टे को इस फ़िल्म में घरेलू कामकाज से जूझते हुए दिखाया गया है.
इस फ़िल्म में उनकी पड़ोसन उनसे कहती हैं, "मर्द बेवकूफ़ होते हैं उन्हें कुछ भी खिला दो. उसमें बस नमक और मिर्च डाल दो."
राधिका आप्टे का कहना है कि अनोखे डायलॉग, मज़ेदार कॉमेडी और पॉप म्यूज़िक के साथ बनी फ़िल्म 'सिस्टर मिडनाइट' एक ऐसी हीरोइन की कहानी दिखाती है, जैसी भारत की किसी भी फ़िल्म में पहले कभी नहीं दिखाई गई.
उन्होंने बीबीसी से कहा, "मैंने इससे पहले कभी कुछ ऐसा कुछ नहीं पढ़ा था. मैं उमा से पूरी तरह जुड़ गई थी. वो एक अजीब-सा लेकिन बेहद दिलचस्प किरदार है. उमा के किरदार को निभाना बहुत नाजुक काम था. कभी वो किरदार बेहद कूल लगता था तो कभी गलत. और यही चीज़ मुझे रोमांचित भी कर रही थी और चुनौती भी दे रही थी. मुझे ये भी बहुत पसंद आया कि उमा जैसी है, वैसी ही है, उसे कोई पछतावा नहीं है. और जैसे-जैसे वो ख़ुद को स्वीकार करती है, वो और ज़्यादा आज़ाद और मज़बूत बनती जाती है."
उमा एक ऐसा नया किरदार है जो भारतीय दर्शकों को हीरोइन की एक अलग झलक दिखाती है. ये किरदार परंपरागत बॉलीवुड हीरोइनों जैसा नहीं है.
बॉलीवुड सालों से बॉक्स ऑफ़िस पर अपना दबदबा बनाए हुए है. पिछले साल बॉलीवुड ने लगभग 1.36 अरब डॉलर की कमाई की थी. हालांकि, बॉलीवुड पर महिला विरोधी होने के आरोप लगते रहे है.
साल 2023 में की गई एक स्टडी में हिट फ़िल्मों में जेंडर के चित्रण और सेक्सुअल स्टीरियोटाइपिंग के पैमाने पर परखा गया.
इस स्टडी में ये बात सामने आई कि बॉलीवुड की ज़्यादातर महिला किरदारों के लिए एक ही तरह का 'फ़ॉर्मूला' अपनाया जाता है.
इस स्टडी की प्रोजेक्ट लीड प्रोफ़ेसर लक्ष्मी लिंगम ने उस समय बीबीसी को बताया था, "फ़िल्म की मुख्य महिला किरदार को पतली और सुंदर दिखाना ज़रूरी माना जाता है. उसे शर्मीली और शांत स्वभाव की दिखाया जाता है, जो अपनी सहमति शब्दों से नहीं, बल्कि इशारों से ज़ाहिर करती है. लेकिन उसे ऐसे कपड़े पहनाए जाते हैं जो उसे मॉडर्न दिखाएं. उसके मॉडर्न होने की सोच को शादी से पहले उसके किसी पुरुष के साथ संबंधों को जोड़कर दिखाया जाता है, जिसे समाज में अक्सर गलत माना जाता है."
उन्होंने यह भी कहा, "फ़िल्मों में कुछ अलग या नया दिखाने की बहुत कम कोशिश होती है."
उन्होंने ये भी बताया कि फ़िल्मी पर्दे पर पुरुष और महिला किरदारों को कैसे दिखाया जाता है, यह बहुत मायने रखता है.

प्रोफ़ेसर लक्ष्मी लिंगम कहती हैं, "भारत में, जहां परिवार और स्कूल अक्सर सेक्स एजुकेशन और सहमति जैसे ज़रूरी मुद्दों पर बात नहीं करते, वहां लोग इन बातों को फ़िल्मों और किताबों से ही सीखते हैं."
इसके उलट, साल 2023 की सबसे बड़ी बॉलीवुड फिल्मों में हीरो को ऐसे 'मर्दाना' अंदाज़ में दिखाया गया, जिसमें हीरो भारी-भरकम शरीर वाला है और वो बंदूकों को लहराते हुए और अपने दुश्मनों को मारता है.
इन हिट फ़िल्मों में शाहरुख़ ख़ान की 'पठान' और 'जवान' भी शामिल हैं, जिनमें शाहरुख एक जासूस और बदला देने वाले किरदार में नज़र आए.
इसके अलावा रणबीर कपूर की 'एनिमल' भी इस लिस्ट में शामिल है. एनिमल में रणबीर के किरदार को अत्यधिक हिंसक और महिला-विरोधी होने के कारण आलोचना झेलनी पड़ी.
यह फ़िल्म संदीप रेड्डी वांगा ने बनाई थी. वांगा इससे पहले कबीर सिंह बना चुके हैं. कबीर सिंह में हीरो को खुलेआम लड़की का पीछा करते और उसे परेशान करते हुए दिखाया गया. इसके बावजूद फ़िल्म कबीर सिंह साल 2019 की दूसरी सबसे बड़ी हिट बनी.
नैरेटिव बदलनाकुछ हिट फ़िल्मों में महिलाओं को सशक्त भूमिकाओं में भी दिखाया गया है. जैसे 'मिशन मंगल' में महिला रॉकेट वैज्ञानिकों की कहानी, जो 2019 की सबसे सफल बॉलीवुड फ़िल्मों में से एक थी.
इसके अलावा करन जौहर की 'रॉकी और रानी की प्रेम कहानी' जैसी फ़िल्में भी हैं, जिन्हें आधुनिक तरीके से जेंडर रोल्स को दिखाने के लिए सराहना मिली.
हालांकि इंडियन एक्सप्रेस की फ़िल्म समीक्षक शुभ्रा गुप्ता कहती हैं कि ज़्यादातर हीरोइनों के पास अपनी भूमिकाओं में ज़्यादा आज़ादी नहीं होती.
उन्होंने बीबीसी से कहा, "इन हीरोइनों की सबसे ज़रूरी पहचान शालीनता होती है."
"हो सकता है कि वे कभी-कभी अपनी बात कह दें या थोड़ी मज़बूत दिखें, लेकिन उन्हें हमेशा ख़ूबसूरत दिखना होता है. और उन्हें हमेशा हीरो के मुकाबले एक दर्जा नीचे ही रखा जाता है. उन्हें हीरो की बात माननी होती है. ज़्यादातर फ़िल्मों में हीरोइन का किरदार नाम मात्र ही होता है, बस कुछ ही सीन होते हैं जहां उन्हें थोड़ा ख़ुद को दिखाने का मौका मिलता है."
हाल ही में संध्या सूरी की फ़िल्म 'संतोष' में एक दलित महिला को एक पुलिसकर्मी के रूप में दिखाया गया है. इस नौकरी के साथ उसके पास वह ताकत और अधिकार आते हैं जो इस पद के साथ मिलते हैं.
संतोष को यह नौकरी अपने पति की मौत के बाद मिलती है. उसके पति की नौकरी के दौरान ही मौत हो जाती हैं.
इस फ़िल्म में शहाना गोस्वामी ने संतोष का किरदार निभाया है, जिसे एक नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार और उसकी हत्या की घटना के बाद अपने आसपास की पुलिस व्यवस्था में भ्रष्टाचार के बारे में पता चलता है.
उसकी वरिष्ठ अधिकारी एक ऐसी महिला है, जिसका किरदार सुनीता राजवार ने निभाया है. इस वरिष्ठ अधिकारी ने सिस्टम में बने रहने के लिए समझौते करना सीख लिया है.
संध्या सूरी, जो पहले डॉक्यूमेंट्री फिल्में बनाती थीं. वह कहती हैं कि उन्हें इस फ़िल्म को बनाने की प्रेरणा 2012 में दिल्ली में चलती बस में एक युवती के साथ हुए सामूहिक बलात्कार और हत्या से मिली.
इस घटना ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा था और इस घटना के बाद भारत में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर नए कानून बनाए गए थे.
हालांकि इसके बावजूद, भारत में महिलाओं और लड़कियों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा अब भी बहुत ज़्यादा है. साल 2022 की एक रिपोर्ट में पाया गया कि अब भी महिलाओं के ख़िलाफ़ सबसे बड़ा अपराध पति या उसके रिश्तेदार करते हैं.
सूरी ने बीबीसी को बताया, "उस समय (बलात्कार और हत्या के बाद) विरोध प्रदर्शन हो रहे थे और मैंने एक महिला पुलिसकर्मी की तस्वीर देखी, जिसे गुस्से में कुछ महिला प्रदर्शनकारी घेर रही थीं. मैंने वह तस्वीर देखी और पुलिसकर्मी के चेहरे पर जो भावनाएं थीं, वह इतनी रहस्यमय थीं कि मैं बहुत प्रभावित हो गई. वह इतनी दिलचस्प थी. वह दोनों शक्तियों के बीच में थी. उसके ख़िलाफ़ हिंसा हो सकती थी, लेकिन उस यूनिफॉर्म के साथ वह ख़ुद भी हिंसा कर सकती थी."
सूरी कहती हैं, "मैं यह जानना चाहती थी कि अगर आप संतोष जैसी किसी महिला को उसके घर के किचन में बंद कर दें या उसे उस स्थिति में डालें, तो वह इस पर कैसे प्रतिक्रिया देती है?"
"मैं यह पूछना चाहती थी कि क्या कोई तरीका है जिससे एक महिला किरदार बन सके जो न तो पुरुष बनने की कोशिश करे और न ही उसका उत्पीड़न हो? क्या समाज में उसका जीने का कोई और तरीका हो सकता है?"
'संतोष' ब्रिटेन की 2025 में सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म के लिए ऑस्कर एंट्री थी.
'सिस्टर मिडनाइट' और 'संतोष' में एक समानता है. ये दोनों फ़िल्में भारत में फिल्माई गई थीं, लेकिन इन्हें ब्रितानी भारतीय फ़िल्म-निर्माताओं ने बनाया है.
'सिस्टर मिडनाइट' के निर्माता 2025 में इसे भारत में रिलीज़ करने की उम्मीद कर रहे हैं, लेकिन सूरी ने बीबीसी को बताया कि 'संतोष' शायद भारत के सिनेमाघरों में रिलीज़ नहीं होगी.
सूरी कहती हैं, "हमने इसे मुंबई इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में दिखाया और वहां हमारी फ़िल्म को बहुत पसंद किया गया और मुझे यह देखकर बहुत खुशी हुई कि फ़िल्म स्थानीय दर्शकों को कितनी वास्तविक लगी."
"लेकिन लगता है कि फ़िल्म भारत में रिलीज़ नहीं होगी, अफ़सोस की बात है, क्योंकि इसे सेंसर बोर्ड में भेजा गया था और इसमें इतने सारे कट्स किए गए कि मैं फ़िल्म का सही रूप नहीं रख पाई."
भारतीय सेंसरशिप के फ़ैसले अक्सर विवादों का कारण बनते रहे हैं. साल 2017 में, फ़ेमिनिस्ट फ़िल्म 'लिपस्टिक अंडर माई बुर्का को "ज़्यादा महिला-प्रधान" फ़िल्म होने के कारण बैन कर दिया था. लेकिन बाद में इस फ़ैसले को पलट दिया गया. इसके बावजूद, कई बड़ी भारतीय फ़िल्में ख़ुद ही सेंसरशिप लागू कर रही हैं, ख़ासकर सेक्स और सेक्शुअलिटी जैसे मुद्दों पर.
साल 2021 की तेलुगु भाषा की हिट फ़िल्म 'पुष्पा: द राइज', जो एक तस्कर की कहानी है. इस फ़िल्म में एक सीन को हटा दिया गया था, जिसमें हीरो पुष्पा हीरोइन श्रीवल्ली के छाती को छूता है, क्योंकि दर्शकों ने इस सीन पर आपत्ति जताई थी.
साल 2024 में, 'पुष्पा 2: द रूल' पर भी भारत में विवाद हो गया था.
शुभ्रा गुप्ता का मानना है कि इस फ़िल्म में ये इशारा किया गया था कि श्रीवल्ली शायद से अपने पति के साथ यौन संबंध बनाना चाहती थीं.
शुभ्रा गुप्ता कहती हैं, "फ़िल्म में महिला किरदार को बहुत प्यारे और चुलबुले अंदाज़ में दिखाया गया है. वह हीरो की तरफ आकर्षित होती है और जब उसे उसके साथ थोड़ा समय चाहिए होता है, तो वो बहुत शरारती अंदाज़ में पेश आती हैं."
"फ़िल्म के बाकी हिस्सों में वह बस हीरो की सेवा कर रही होती है. वह चाहती है कि उसका पति किसी और के साथ शारीरिक संबंध न बनाए. लेकिन असल में, यह बात भारत में चर्चा का विषय बन गई, क्योंकि हमारे यहां फ़िल्मों में हीरो या हीरोइन आमतौर पर ऐसे मुद्दों पर बात नहीं करते."
शुभ्रा गुप्ता आगे कहती हैं, "और हमारी मुख्यधारा की फ़िल्मों में अब भी यही धारणा है कि अगर कोई महिला शादी के बाहर यौन संबंध बनाती है, तो उसे आलोचना झेलनी पड़ेगी."
पायल कपाड़िया की फ़िल्म 'ऑल वी इमेजिन एज़ लाइट' में सेक्स जैसे मुद्दों पर सही तरीके से बात रखी गई है जो इस फ़िल्म को और भी साहसी बनाती है. कान फ़िल्म फेस्टिवल का ग्रां प्री जीतने वाली यह पहली भारतीय फ़िल्म है. इस फ़िल्म में प्रभा नाम की नर्स की कहानी दिखाई गई है, जो अपनी अरेंज मैरिज में अकेली है.
वहीं उसकी रूममेट अनु, जो एक हिंदू लड़की है, अपने मुस्लिम बॉयफ्रेंड के साथ शारीरिक संबंध बनाना चाहती है और यह भी हमारे समाज में एक संवेदनशील विषय है जिसके साथ एक टैबू जुड़ा हुआ है. फ़िल्म में शादी से पहले किसी तरह की बातचीत नहीं दिखाई गई है.

कपाड़िया बीबीसी से कहती हैं, "यह फ़िल्म उन बातों से जुड़ी है जो मैं कुछ समय से महसूस कर रही हूं."
"भारत में महिलाएं भले ही आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो गई हों, लेकिन अपनी निजी ज़िंदगी के फ़ैसलों में उन्हें अब भी बहुत कम आज़ादी मिलती है. ऐसा लगता है जैसे उन्हें अब भी बच्चा समझा जाता है. आप 25 साल की हो सकती हैं, अपनी कमाई से परिवार चला रही हों, लेकिन फिर भी यह तय नहीं कर सकतीं कि किसके साथ रहना है या किससे शादी करनी है."
हालांकि 'ऑल वी इमेजिन एज़ लाइट' को काफी सराहना मिली, लेकिन इसे भारत की 2025 की ऑस्कर एंट्री के लिए नहीं चुना गया. जूरी ने कहा कि यह "भारत में बनी एक यूरोपीय फ़िल्म" जैसी लगती है.
लेकिन 2024 में भारतीय महिला निर्देशक की यही एक ऐसी फ़िल्म नहीं थी, जिसने एक युवा महिला की यौन चेतना को पर्दे पर दिखाया. शुचि तलाती की अंग्रेज़ी और हिंदी भाषा की फ़िल्म 'गर्ल्स विल बी गर्ल्स' ने सनडांस फ़िल्म फ़ेस्टिवल में ऑडियंस अवार्ड जीता.
यह फ़िल्म हिमालय के एक बोर्डिंग स्कूल की कहानी है, जहां एक 18 साल की लड़की पहली बार किसी लड़के से प्यार करती है. लेकिन उसकी ये प्रेम कहानी उसकी मां की वज़ह से अधूरी रह जाती है.
हालांकि कुछ भारतीय फ़िल्में जो समाज के "तय किए हुए नियमों" को तोड़ती हैं, पहले भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान बना चुकी हैं. जैसे मीरा नायर की 'मॉनसून वेडिंग' (2001), 'लिपस्टिक अंडर माई बुर्का' (2016), और 2014 की एलजीबीटीक्यू+ टीनएज लव स्टोरी 'मार्गरीटा विद अ स्ट्रॉ.'
शुभ्रा गुप्ता कहती हैं कि आज भी अंतरराष्ट्रीय दर्शकों और आम भारतीय दर्शकों की पसंद में काफ़ी अंतर है.
शुभ्रा गुप्ता कहती हैं, "जिन फ़िल्मों की हम बात कर रहे हैं, वे स्वतंत्र भारतीय सिनेमा का हिस्सा हैं और असल में वहीं पर सबसे दिलचस्प और नए प्रयोग हो रहे हैं. यह सिर्फ़ भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के सिनेमा के लिए सच है,"
"पायल कपाड़िया की फिल्म 'ऑल वी इमेजिन एज़ लाइट' का सफ़र शानदार रहा है और इसे भारत में थिएटर में रिलीज़ भी किया गया. लेकिन सच कहूं तो मुझे नहीं पता कि इसने यहां बॉक्स ऑफ़िस पर कितनी कमाई की."
वह आगे कहती हैं कि अगर भारतीय दर्शक 'सिस्टर मिडनाइट' की उमा या संतोष जैसी हीरोइनों को पर्दे पर देखें, तो उनकी प्रतिक्रिया शायद हैरानी या अविश्वास वाली होगी, क्योंकि ये किरदार आम फ़िल्मों से बिल्कुल अलग हैं.
शुभ्रा गुप्ता कहती हैं, "उन्हें ये मानना मुश्किल लगेगा कि संतोष जैसी एक दलित महिला, जो समाज के निचले तबके से आती है, कहानी की मुख्य नायिका हो सकती है और पूरी फ़िल्म उसी के इर्द-गिर्द घूमती है. यह भारत में बेचना बहुत मुश्किल हो जाएगा."
"और 'सिस्टर मिडनाइट' में राधिका आप्टे का किरदार (उमा) एक पत्नी का है, लेकिन वो 'आज्ञाकारी' नहीं है. वह अपने तरीके से जीती है और काफ़ी हद तक बेपरवाह तरीके से काम करती है. ये शानदार फ़िल्में हैं जो शायद ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स पर या ख़ास समझ रखने वाले दर्शकों के बीच पसंद की जाएंगी. लेकिन ऐसी ऑडियंस की संख्या आमतौर पर इतनी नहीं होती कि वह किसी बड़ी बॉलीवुड फ़िल्म जितना बिज़नेस कर सके."
स्टीरियोटाइप को तोड़नाबंगाली भाषा की फ़िल्म 'शैडोबॉक्स' के निर्देशक तनुश्री दास और सौम्यनंद साही का मानना है कि भारतीय फ़िल्म-निर्माताओं को आज भी दर्शकों की सोच को बदलने के लिए स्टीरियोटाइप को तोड़ने की कोशिश करनी पड़ती है.
इस साल के बर्लिन इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में 'शैडोबॉक्स' को दिखाया गया. यह फ़िल्म माया की कहानी है. माया का किरदार तिल्लोतामा शोम ने निभाया है. जो कई तरह की नौकरियां करती है और अपने परिवार का खर्च चलाने के लिए संघर्ष करती है, क्योंकि उसका पति, जो एक पूर्व सैनिक है और मानसिक समस्याओं से जूझ रहा है. और इन सब वज़ह से उसे अक्सर समाज में अपमानित किया जाता है.
'शैडोबॉक्स' की निर्देशक तनुश्री दास बीबीसी से कहती हैं, "जब हम कामकाजी वर्ग की वंचित महिलाओं की बात करते हैं, तो अक्सर उन्हें 'हाशिये पर रहने वाली' कहा जाता है."
"लेकिन 'हाशिये' पर रहने वाले लोग असल में हमारी आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा हैं. तो फिर उनकी कहानियां हमें क्यों नहीं दिखतीं? अब वक्त आ गया है कि हम इन स्टीरियोटाइप को तोड़ें. इसके लिए ज़रूरी है कि ज़्यादा से ज़्यादा महिलाएं अपनी कहानियां ख़ुद सुनाएं. मुझे लगता है कि फ़िल्म निर्माता और डिस्ट्रीब्यूटर्स ये समझ नहीं पाते कि महिलाएं कितनी बड़ी संख्या में दर्शक हैं और वे ऐसी फ़िल्में देखना चाहती हैं जिनमें उनकी असली ज़िंदगी दिखे, न कि सिर्फ नाम के लिए उन्हें दिखाया जाए."
अगर सिनेमा ही एक विकल्प नहीं है, तो कोविड-19 महामारी के दौरान अंतरराष्ट्रीय स्ट्रीमर्स और ओटीटी प्लेटफ़ार्मों का उभार (जो दर्शकों को सीधे टीवी या फोन ऐप से कंटेंट देखने का मौका देते हैं) ने हाल ही में महिला-केंद्रित और साहसी फ़िल्ममेकिंग को एक नया मंच दिया है.
साल 2021 में जियो बेबी की बनाई गई मलयालम फ़िल्म "द ग्रेट इंडियन किचन" नीस्ट्रीम नामक ऐप पर हिट हो गई और इस फ़िल्म को हिंदी और तमिल भाषा में भी बनाया गया.
यह एक अरेंज मैरेज की कहानी है. फ़िल्म में घरेलू काम, तंग करने वाले ससुराल और एक बेपरवाह पति को दिखाया गया है.
एक महिला समीक्षक ने इसे इस तरह से बताया कि "यह फ़िल्म पितृसत्ता को ख़त्म करती है, जो परिवार और धर्म जैसी संस्थाओं का आधार है."
किरण राव की फ़िल्म "लापता लेडीज" (जो इस साल भारत की ऑस्कर एंट्री बनी) भी एक अनचाहे अरेंज मैरेज की कहानी है और इसे नेटफ़्लिक्स पर रिलीज़ किया गया था, जैसे 2020 की "गुंजन सक्सेना", जो भारत की पहली महिला फ़ाइटर पायलट की कहानी थी.
फ़िल्म समीक्षक शुभ्रा गुप्ता कहती हैं, "लेकिन लोग असल में इन फ़िल्मों के लिए टिकट नहीं खरीद रहे हैं. ये फ़िल्में ज़्यादातर 15 से 35 साल के युवाओं देखने जाते हैं और अक्सर ये युवा पुरुष होते हैं. इसके अलावा, फ़िल्म इंडस्ट्री में अब भी काफ़ी हद तक एक 'लड़कों का क्लब' ही है."
साल 2023 के बेहतरीन प्रदर्शन के बाद, बॉलीवुड ने पिछले साल भारतीय बॉक्स ऑफ़िस के कुल मुनाफ़े का सिर्फ 40% कमाया और शुभ्रा गुप्ता का मानना है कि बॉलीवुड की "फॉर्मूला फ़िल्मों" ने इस स्थिति को और बढ़ाया है.
वह कहती हैं, "लोग कुछ नया और अलग देखना चाहते हैं."
"लेकिन समस्या यह है कि अगर आप उनके नज़रिये से ज्यादा हटकर फ़िल्म बनाएंगे, तो मुझे नहीं लगता कि वे सिनेमा देखने आएंगे. इसलिए, अफ़सोस की बात यह है कि हमने इस संतुलन को बनाए रखा है ताकि लोग ऐसी महिलाओं को देखने की उम्मीद न करें जो नारीवादी हैं या ऐसी महिलाएं जो इस विचार को नहीं मानतीं कि एक अच्छी महिला कैसी होनी चाहिए."
हालांकि, वह ये भी कहती हैं कि बदलाव लाने के लिए सिर्फ महिला किरदारों को ही अलग तरीके से पेश करने की ज़रूरत नहीं है.
शुभ्रा गुप्ता कहती हैं, "अगर आप अपनी महिला किरदारों को अलग दिखाना चाहते हैं, तो आपको अपने पुरुष किरदारों को भी नए तरीके से लिखना होगा."
"इसके लिए हर पहलू में एक बड़ा बदलाव जरूरी है."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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