इतिहास के पन्नों में चित्तौड़गढ़ किले का नाम वीरता, बलिदान और सम्मान की मिसाल के रूप में दर्ज है। लेकिन इस किले की भव्यता के पीछे छिपी है एक ऐसी दर्दनाक दास्तान, जिसे जानकर आज भी रूह कांप उठती है। चित्तौड़गढ़ का "जौहर कुंड" उन वीरांगनाओं के त्याग और बलिदान का मूक गवाह है, जिन्होंने अपने सम्मान की रक्षा के लिए अग्नि में कूदकर प्राणों की आहुति दे दी थी।यहां हर पत्थर, हर दीवार वीरता और शहादत की कहानी कहता है, लेकिन जौहर कुंड की दास्तान सबसे ज्यादा दिल दहला देने वाली है।
जौहर: सम्मान की रक्षा के लिए आत्मदाह
"जौहर" शब्द का अर्थ है सम्मान की रक्षा के लिए सामूहिक आत्मदाह। जब युद्ध के मैदान में पराजय निश्चित हो जाती थी और दुश्मन किले के भीतर घुसने वाला होता था, तब चित्तौड़गढ़ की राजपूत रानियों और वीरांगनाओं ने शत्रुओं के हाथों अपमानित होने की बजाय मृत्यु को गले लगाना बेहतर समझा।चित्तौड़गढ़ के जौहर कुंड में तीन बार सामूहिक जौहर हुआ, जो भारतीय इतिहास के सबसे दर्दनाक अध्यायों में से एक माने जाते हैं।
पहला जौहर: रानी पद्मिनी और अलाउद्दीन खिलजी का हमला
सन् 1303 में दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़गढ़ किले पर हमला किया। उनकी नजर रानी पद्मिनी की सुंदरता पर थी। जब खिलजी ने किले को घेर लिया और पराजय निश्चित हो गई, तब रानी पद्मिनी ने अन्य सैकड़ों क्षत्राणियों के साथ जौहर कुंड में अग्नि की लपटों में कूदकर अपनी लाज बचाई।कहा जाता है कि अग्निकुंड इतना विशाल था कि उसमें एक साथ हजारों महिलाओं ने आत्मदाह किया था। उनके साहस और बलिदान की गाथा आज भी चित्तौड़गढ़ की हवाओं में गूंजती है।
दूसरा जौहर: बहादुर शाह का हमला
1535 में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने चित्तौड़गढ़ पर हमला किया। एक बार फिर, जब हार निश्चित हो गई और शत्रु द्वार तोड़ने के कगार पर था, तब रानियों और महिलाओं ने फिर से जौहर कुंड में कूदकर अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। इस बार भी हजारों स्त्रियों ने सम्मान की रक्षा हेतु अग्नि में समर्पण किया था।
तीसरा जौहर: अकबर का आक्रमण
1567-68 में मुगल सम्राट अकबर ने चित्तौड़गढ़ पर हमला किया। महीनों की घेराबंदी के बाद जब मुगल सेना किले में प्रवेश करने वाली थी, तब तीसरी बार चित्तौड़गढ़ की वीरांगनाओं ने जौहर किया। इस घटना ने चित्तौड़गढ़ के जौहर कुंड को इतिहास में स्थायी रूप से एक अमर गाथा के रूप में स्थापित कर दिया।
जौहर कुंड: आज भी गूंजती हैं चीखें
आज भी चित्तौड़गढ़ किले के भीतर स्थित जौहर कुंड को देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि अमावस्या की रातों में वहां से कभी-कभी महिलाओं के रोने और चीखने की आवाजें सुनाई देती हैं।पर्यटक जब जौहर कुंड के पास खड़े होते हैं, तो अक्सर एक अजीब-सी उदासी और भय का अनुभव करते हैं। मानो वो दिव्य आत्माएं आज भी वहां अपने त्याग की गवाही दे रही हों।
जौहर कुंड का ऐतिहासिक महत्व
इतिहासकारों के अनुसार, जौहर कुंड न केवल बलिदान का प्रतीक है, बल्कि यह उस युग के सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को भी दर्शाता है, जहां सम्मान को जीवन से भी ऊपर माना जाता था।यह कुंड चित्तौड़गढ़ के इतिहास में महिलाओं की भूमिका और उनके अदम्य साहस का जीता-जागता उदाहरण है। आज भी हजारों पर्यटक हर साल चित्तौड़गढ़ आते हैं, जौहर कुंड को नमन करते हैं और उस वीरता को सलाम करते हैं, जिसने इतिहास को अमर बना दिया।
किले का वर्तमान स्वरूप
आज चित्तौड़गढ़ किला एक प्रमुख पर्यटन स्थल है और यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल है। विशाल गेट, मंदिर, महल और स्मारक इस किले को भव्यता का प्रतीक बनाते हैं। लेकिन जौहर कुंड की ओर जाते समय एक गहरी चुप्पी और सम्मान का माहौल खुद-ब-खुद महसूस होता है।वह स्थान आज भी वीरांगनाओं के बलिदान की कहानी को जीवंत बनाए हुए है।
निष्कर्ष
चित्तौड़गढ़ का जौहर कुंड हमें याद दिलाता है कि सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा के लिए क्या कीमत चुकाई गई थी। यह केवल एक ऐतिहासिक स्थल नहीं है, बल्कि एक प्रेरणा है — साहस, त्याग और आत्मसम्मान की प्रेरणा।अगर आप कभी चित्तौड़गढ़ किले जाएं, तो जौहर कुंड के पास कुछ पल जरूर बिताइए। आपको वहां न केवल इतिहास की गूँज सुनाई देगी, बल्कि उन अनाम वीरांगनाओं की आत्माओं का आशीर्वाद भी महसूस होगा, जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर चित्तौड़ की आन-बान-शान को अमर कर दिया।
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